साहित्य लहर

कविता : असल आईना

कविता : असल आईना, समझ बिल्कुल भी नहीं आता के आदमी दिखाता किसको है? असल बात तो उसे पता है के उसकी औकात क्या है… #सिद्धार्थ गोरखपुरी

अंतर्मन की चमक अब फीकी पड़ गयी है
बाहरी चमक के आगे

रंग -ए -पॉलिश चढ़ाया जा रहा है बस
अंतहीन मैल बैठी है जस के तस

दिखावा शिखर पर है छलावा के साथ
आदमी पहचान रहा है देखकर औकात

समझ बिल्कुल भी नहीं आता के
आदमी दिखाता किसको है?
असल बात तो उसे पता है के उसकी औकात क्या है…

जो है वही रह क्यों नहीं जाता
जबकि जो नहीं है वो बनना पड़ता है
सच में बन जाता तो मान लेता
पर सच में तो कारा झूठ ही है सब

अब झूठ ने सच की बराबरी जो कर ली है
झूठ सच जैसा बोला जा रहा है
और सच झूठ जैसा

इक आईने के ईजाद की जरूरत है
जो दिखाए चेहरे के अंदर का चेहरा
और अंदर की वास्तविक तस्वीर भी

जिससे आदमी देख पाए खुद की और… औरों की असल तस्वीर
शायद ए आईना बदल पाए आदमी की कुछ छिटपुट तासीर

कविता : सब हो जाते मन से छू मंतर


कविता : असल आईना, समझ बिल्कुल भी नहीं आता के आदमी दिखाता किसको है? असल बात तो उसे पता है के उसकी औकात क्या है... #-सिद्धार्थ गोरखपुरी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Devbhoomi Samachar
Verified by MonsterInsights