कविता : बालश्रमिक
कविता : बालश्रमिक… दीन-हीन अभिभावक जब, हालातों से तंग हो जाता है, चंद पैसों के खातिर,बच्चों से काम करवाता है मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है। खेलने-खाने की उम्र में मासूम जिम्मेदारियों का बोझ उठाता है कभी ईंट भट्टे, कभी होटलों पर… #सुनील कुमार, एआरपी (विज्ञान), बहराइच (उत्तर प्रदेश)
मासूमों के सर से जब
मां-बाप का साया हट जाता है
भूख मिटाने को अपनी
दर-दर की ठोकरें खाता है
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।
कुदरत का क्रूर सितम
मासूम समझ नहीं पाता है
कभी रुखा-सूखा खाकर,
कभी भूखा ही रात बिताता है
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।
मां-बाप से जब मासूमों का
भरण-पोषण नहीं हो पाता है
मासूमों के नाज़ुक कंधों पर
जिम्मेदारियों का बोझ पड़ जाता है
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।
दीन-हीन अभिभावक जब,
हालातों से तंग हो जाता है
चंद पैसों के खातिर,बच्चों से काम करवाता है
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।
खेलने-खाने की उम्र में मासूम
जिम्मेदारियों का बोझ उठाता है
कभी ईंट भट्टे, कभी होटलों पर
मेहनत- मजदूरी करने जाता है
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।
कभी-कभी तो मासूम
शोषण का शिकार हो जाता है
कभी जालिमों के चंगुल में फंसकर
भिक्षावृत्ति को अपनाता है।
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।
कभी बुरी संगत में पड़कर
बाल अपराधी बन जाता है
जेल की बंद सलाखों के पीछे
घुट- घुटकर जिंदगी बिताता है।
मजबूरी में मासूम, बालश्रमिक बन जाता है।