साहित्य लहर
हां मैं एक किसान हूं
गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
सूरज के उठने से पहले खेतों में पहुंच जाता हूं।
देख दाख के मेड़,क्यारी कामों में जुट जाता हूं।
ले हाथ में कुदाल,खंती सुबह से डट जाता हूं।
निशा के आने के बाद ही घर को लौट पाता हूं।
जाड़ा,गर्मी या बरसात भात खेत में खाता हूं।
जब आती थकान कभी पेड़ तले लुढ़क जाता हूं।
न डर सांप,बिच्छू का न जानवरों से डरता हूं।
दिनभर रहकर धूप में फौलादी बन जाता हूं।
मन से बिल्कुल सीधा वचन पर अडिग रहता हूं।
न किसी को ढगता,लूटता मेहनत करके खाता हूं।
खेती से नजदीकी रिश्ता उसे मां समान मानता हूं।
कोई बोली लगाता मां की मैं आफ़त बन जाता हूं।
सदियों ने देखी है ताकत पत्थर को मिट्टी बनता हूं।
चीरकर छाती धरती के दुनिया की भूख मिटाता हूं।
हां मैं एक किसान हूं और सत्ता को चेताता हूं।
काले कानून वापस लो नहीं तो सरकार नई बनाता हूं।