आनंद के दिन… उस समय हमलोगों ने घर के बाहर पिछवाड़े में डेरा डालकर घर बनाया था। हमारे पितामह तथा टोले के अन्य लोग भूकंप के बारे में समाचार-पत्रों में छपे सामाचारों के बारे में उस समय बातचीत किया करते थे। भूकंप के बाद 1934 ई.में उसी साल ज्येष्ठ महीने में… #राजीव कुमार झा
धीरे-धीरे हमारा अनुभव भी हमारी उम्र के साथ बढ़ चला और हम राम,कृष्ण, गणेश, और दुर्गा आदि देवी देवताओं के बारे में भी
मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया था।उस समय इन देवी देवताओं पर पूर्ण विश्वास था। धार्मिक व्रत के प्रति श्रद्धा थी और व्रत किया भी करता था। त्योहार या पर्व भी हमारे लिए आनंद के दिन होते थे। दुर्गा पूजा उन सबों में बढ़कर था। अब मैं बड़ा हो गया था और मेरी उम्र पांच वर्ष की हो गयी थी।
इसी समय हमारे छोटे भाई का जन्म हुआ था और हमारा चूड़ाकर्ण संस्कार हुआ। अब मैं घर के बाहर खेलने के लिए आने – जाने लगा था और खासकर टोले के ब्राह्मणों और नाईयों के लड़कों के साथ खेलता था। यह सन् 1934 ई. की बात है। पितामह अभी भी जीवित थे लेकिन उनका पैर टूट चुका था। फिर भी वे गुरसहाय सिंह आदि ग्रामीणों के बंगले पर भांग पीने के लिए जाते थे। उस समय जो कुछ भी घटनाएं हमारे जीवन में घटीं उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य पड़ा पर हमें उसका अनुभव बहुत कम होता था।
नयी – नयी चीजों का ज्ञान मिल रहा था और अपने परिवार के परंपरागत प्राचीन विश्वासों और तौर तरीकों तथा रहन सहन आदि में हम भी घुलते मिलते जा रहे थे। अब तक मेरा जीवन बिल्कुल पवित्र था और हम सांसारिक बातों से बिल्कुल अलग थे। 1934 ई. में भूकंप हुआ जिसमें हमारा बंगला गिरकर नष्ट हो गया। उस समय हमारे घर में एक गाय भी थी, वह एक बछड़ा भी जनी थी। इसी समय मार्ग शीर्ष में मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ। भूकंप माघ में आया था।
उस समय हमलोगों ने घर के बाहर पिछवाड़े में डेरा डालकर घर बनाया था। हमारे पितामह तथा टोले के अन्य लोग भूकंप के बारे में समाचार-पत्रों में छपे सामाचारों के बारे में उस समय बातचीत किया करते थे। भूकंप के बाद 1934 ई.में उसी साल ज्येष्ठ महीने में मैं अपने ननिहाल गया तथा सावन में लौट आया। ननिहाल में रहकर मैं अधिक कुछ नहीं सीख सका पर वहां के सभी पारिवारिक लोगों तथा अन्य चीजों से परिचित हो गया।
वहां से लौटने पर उसके दूसरे साल चैत के महीने में पितामह की मृत्यु हो गई। उनका श्राद्ध पंडित शक्तिनाथ चौधरी ने कराया। वह श्री सरस्वती संस्कृत भूषण विद्यालय बड़हिया के प्रधानाध्यापक थे। इस समय तक मैं बाहर आने- जाने लगा था और कभी – कभी भोजों में बाहर भी जाया करता था। हरवंश नारायण के यहां भी कभी – कभी जाया करता था।