_____

Government Advertisement

_____

Government Advertisement

_____

फीचरसाहित्य लहर

पातियोंं के अंतहीन सोपान

पातियोंं के अंतहीन सोपान, समीक्षा को तो शब्दों में बांधना पड़ता है और जब शब्दों को आकार देने वाला व्यक्ति ही भटकाव या विस्मृत अवस्था का शिकार हो जाए तो समीक्षा के क्या कहने? ऐसा समय था जब मेरे कानों में पहली बार ‘केशव कल्चर’ की भनक पड़ी तो मैं आग-बबूला हो उठा। #समीक्षक/कैलाश आदमी

प्रेम की अपनी भाषा, अपने संकेत और अपनी ध्वनि होती है और दुनिया में ऐसे जीव भी हैं, जिन्हें प्रेम की कोई समझ ही नहीं है। ऐसे व्यक्ति को ‘कान्हा के नाम पाती’ जैसी किताब की समीक्षा लिखने हेतु कहा जाए तो सोचिए उस व्यक्ति पर क्या बीतेगी? यह व्यक्ति और कोई नहीं मैं स्वयं हूं। लिखने को मैं अब तक शताधिक किताबों की आलोचना-समालोचना करने के साथ ही उनकी समीक्षात्मक टिप्पणियां भी कर चुका हूं, किंतु ‘पाती’ की समीक्षा लिखते समय मेरे हाथ कांप रहे हैं और इसी कारण कलम भी डगमगा रही है।

यूं तो मैंने जीवन में ढेर सारी पातियां लिखी हैं, लेकिन ‘कान्हा के नाम पाती’ ? ‘बाप रे बाप, यह कठिन काम मुझसे नहीं होगा’- मैंने ऐसा कह दिया ,अपनी सबसे अजीज और अजीम संगाती श्रीमती सरिता गर्ग ‘सरि’ से। इसके बावजूद उनके प्रेमाग्रह को मैं टाल नहीं सका। यह पाती क्या है? चंद शब्दों में कैसे समा सकती है ‘कान्हा के नाम पाती’ ,जो ह्दय के मरूथल से छिटककर पावस की बूँदों के समान मानस पटल पर कौंधती हुई प्रेमोपवन में रिमझिम..रिमझिम…रिमझिम बरस रही हो।

बार-बार सोचता हूं कि क्या कान्हा के पहले दुनिया में कहीं प्रेम-हरीतिमा रस-वृष्टि नहीं होती थी? होती होगी, लेकिन ज्यों सावन के अंधे को सर्वत्र हरीतिमा ही हरीतिमा नजर आती है, उसी तरह मुझे भी इस समय पाती और प्रेम के सिवाय और कुछ नहीं सूझ रहा। लगता है कि यदि कान्हा के पास प्रेमसुधा रस नहीं होता तो उनका जीवन भी नीरस होता और फिर ऐसे नीरस इंसान के नाम पाती ही कौन लिखता? फिर मुझे तो पाती लेखकों-लेखिकाओं की अंतहीन कतार लगी दिखाई दे रही है। ऐसी स्थिति मेें मेरा भटकना या विमूढ़ हो जाना स्वाभाविक ही है।

समीक्षा को तो शब्दों में बांधना पड़ता है और जब शब्दों को आकार देने वाला व्यक्ति ही भटकाव या विस्मृत अवस्था का शिकार हो जाए तो समीक्षा के क्या कहने? ऐसा समय था जब मेरे कानों में पहली बार ‘केशव कल्चर’ की भनक पड़ी तो मैं आग-बबूला हो उठा। कारण यह है कि मुझमें सुदीर्घ काल से मातृभाषा और राष्ट्रभाषा प्रेम का अहंकार पलता और पनपता रहा है। फिर अचानक अनुज तुल्य सखा सुरेश खांडवेकरजी ने ‘केशव कल्चर’ पर केन्दित समाचार प्रकाशन हेतु संप्रेषित कर दिया।

जिसके शीर्षक को मैंने ‘केशव संस्कृति’ में रूपांतरित करके छाप दिया तो मुझे सुरेश जी के साथ सरिता जी केे आक्रोश का भी शिकार होना ही था। शुक्र है कि शिकार तो हुआ लेकिन मेेरी सांसें अटकी रहींं और मैं हाल ए दिल छुपाकर नहीं रख सका। जिसका परिणाम सामने है। मुझे लगा कान्हा- प्रेम में डूबे हुए सखाओं का पहला शिकार मैं ही बना हूं। मेरे दिल पर क्या बीती होगी, बस मैं ही जानता हूं। मुझे लगा कि इसकी शिकायत करना चाहिए, लेकिन करूं तो किससे करूं या कहां करूं?

आचार-विचार और व्यवहार से मैं एक अधार्मिक व्यक्ति ठहरा , इसलिए मैंने सयाना बनकर मन ही मन माफी मांगी और दीप्ति शुक्लाजी की २४ दिवसीय कार्यक्रम एवं २४ घंटे सतत चलने वाली संघटना के घटित होने की प्रतीक्षा समाप्त कर ,पाती के पुस्तकाकार ग्रहण करने की प्रतीक्षा में जुट गया। अंततोगत्वा ‘कान्हा के नाम पाती’ मेरे हाथ लगी तो मैं भौचक रह गया। इतनी छैल-छबीली अप्रतिम, अविरल और सुंदर कृति! वाह रे वाह! दोनों हाथों में बांसुरी थामें कान्हा के होठों से प्यार का अमृत बरसाती प्रेम रस पगी ध्वनि सुनकर मैं मदहोश होता चला गया।



मैंने ज्यों-ज्यों किताब के पन्ने पलटे त्यों-त्यों रचनाओं से निकलती प्रेम की ज्वाला के निरंतर प्रवाहित ओज से मैं हतप्रभ हो , छटपटाहट महसूस करने लगा। संतोष की बात यह है कि सरिता जी की ‘मन की बात’ में मुझे मेरे अपने मन की बात समाहित प्रतीत हुई ,वहीं सुरेशजी का यह कथन दिल को छू गया- ‘प्रारंभ लगभग दोषमुक्त होता है और प्रारंभ में विकास की तीव्रता होती है विस्तार तक’। आगे दीप्तिजी और ममता गाबाजी के आलेखों ने तो प्रभावित किया ही, सरिता जी स्वयं को अपराध बोध से ग्रस्त बताते हुए अपने प्यारे कान्हा से क्षमा-याचना करती दिखीं तो मैं अवाक रह गया।



मुझे लगा कि जब उनका हृदय ही वृंदावन है तो फिर मैं वृंदावन न जाकर क्यों न सरिताजी के देहांगन ‘हृदय’ में झांकने का प्रयास करूँ। इसी कड़ी में मैंने उनके काव्योद्गार भी हृदयंगम किए जिसमें सरस्वती आराधना, आ जाओ गिरधारी, जपूँ मेरी माला, नींव का पत्थर, मैं दौड़ी आऊंगी और सुनो मोहन। ये सभी रचनाएं पठन-पाठन करने योग्य हैं। संपादिका दीप्तिजी की आठ पंक्तियों की ‘पाती’ में तो मुझे आठों लोक ही समाहित दिखे। यह भी लगा जैसे पाती बन उन्होंने कान्हा को ही पा लिया हो।



अन्य रचनाकारों में अर्पणा आर्या, आस्था जैन, अनुज कुमार तिवारी, बलराम यादव, भावना भारद्वाज, भार्गवी रवींद्र, गीता जेडे, ज्योति जोशी, कामिनी भारद्वाज, कौशल किशोर चतुर्वेदी, कविता मल्होत्रा, कौशलेंद्र सिंह, कुमार संदीप, ममता गाबा, मीता जोशी, प्रवीण शर्मा, समरनाथ मिश्र, संपदा मारबली, सपना यशोवर्धन संगीता पाठक, सविता गर्ग ‘सावी’, सीताराम साहू निर्मल, शंभू राय, शोभा सोनी, सुमंगला सुमन, सुरेश कुमार सुलोदिया, त्रिलोक फतेहपुरी, उषा जैन, वंदना सिंह, विभा रंजन सिंह, विजय सिंह और विनीता लवानिया की काव्य पंक्तियां पढ़कर आंखें चौंधियाने लगीं तो समर बहादुर सरोज की हल्की-फुुल्की टीका से भी मैं कृष्ण मोहित या सम्मोहित हुए बिना ना रह सका।



यह भी लगा कि मुझे सुरेश खांडवेकर की तरह कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया की रट लगाना चाहिए ताकि मेरी नैया भी कन्हैया पार लगा दे, क्योंकि पाती की समीक्षा करते-करते मुझे लग रहा है जैसे कि मेरी डूबती भाव नैया का खिवैया भी कन्हैया ही है और कन्हैया से गुहार लगाए बिना मुझ जैसे नास्तिक का उद्धार होने वाला नहीं है। अंत में मेरी सारी शुभकामनाएं दीप्तिजी के लिए हैं कि वे ‘कन्हैया के नाम पाती’ जैसी बहुरंगी चितरंगी, त्रुटिविहीन और मनमोहक, मनभावन कृतियों का प्रकाशन करते हुए सांस्कृतिक-साहित्यिक अंतहीन सोपानों पर सतत, अनवरत और निरंतर, अविचल, अविराम चढ़ती-बढ़ती रहें।




कैलाश आदमी, संस्थापक सम्पादक ‘निर्दलीय’, भोपाल


👉 देवभूमि समाचार में इंटरनेट के माध्यम से पत्रकार और लेखकों की लेखनी को समाचार के रूप में जनता के सामने प्रकाशित एवं प्रसारित किया जा रहा है। अपने शब्दों में देवभूमि समाचार से संबंधित अपनी टिप्पणी दें एवं 1, 2, 3, 4, 5 स्टार से रैंकिंग करें।

पातियोंं के अंतहीन सोपान, समीक्षा को तो शब्दों में बांधना पड़ता है और जब शब्दों को आकार देने वाला व्यक्ति ही भटकाव या विस्मृत अवस्था का शिकार हो जाए तो समीक्षा के क्या कहने? ऐसा समय था जब मेरे कानों में पहली बार 'केशव कल्चर' की भनक पड़ी तो मैं आग-बबूला हो उठा। #समीक्षक/कैलाश आदमी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Devbhoomi Samachar
Verified by MonsterInsights