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नदी और मेरी अनुभूति

प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”

आज से विगत कुछ समय के पूर्व अंतराल पर यमुना के पास गया था।‌ उन दिनों भी यमुना में अच्छा बहाव है। पानी साफ-सुथरा है। लहर मचलती है। एक की पीठ पर सवार होकर दूसरी आगे बढ़ जाती है और नदी में ढह कर नदी हो जाती है। लहर की सत्ता हर क्षण मिटती उपजती है। नदी शाश्वत है। नदी आत्मा है। लहर देह।‌ नदी को प्रवहमान देखना एक सुख है। उल्लास और गति है नदी। जीवन का साक्षात रूपाकार नदी में ही मिलता है।

नदी की लहरों का स्वर ध्यान से सुनना चाहिए। वह डुबुक डुबुक कर जब आगे बढ़ती है। तट पर आकर टूटती है। नदी उसे पुनः धार में ले जाती है। कभी जब नदी के दुकूल पर सन्नाटा हो, तब किसी किनारे खड़े होकर उसे देखना चाहिए। तब उसके पानी में मत उतरिए। बस तट पर खड़े होकर देखिए। नदी सदैव आपको आनन्द देने वाली आनन्ददायिनी सलिला नहीं। ज़रूरी नहीं कि आप सदा-सदा ही उसके शीतल जल में अपने पांव डुबो कर बैठ ही जाएं। जरूरी नहीं कि नदी आपको सहलाती रहे। कभी ऐसा भी तो हो कि आप बस नदी को उसकी स्वतंत्र सत्ता के साथ बहते हुए देखें। जहां नदी और आप दोनों हों, और आप उसका अतिक्रमण न कर रहे हों।

यह आवश्यक नहीं कि नदी सदा ही आपके धार्मिक कार्यों को पूर्ण करने वाली धामा हो‌। नदी में उतरना, नहाना, आचमन करना या तैरना आपके आनन्द तृप्ति के उपक्रम हो सकते हैं। परन्तु हर बार नहीं। कभी उसकी निजता का ध्यान कर उसे छोड़ दें। बहने दिया करें। आप देखें उसे बहते हुए। इससे पूर्व जब नदी के निकट गया था, तब मेरे हाथों में अस्थियां थीं। पुजारी ने कहा, उतर जाओ तनिक नीचे। जरा सावधान रह कर सीकड़ पकड़ लो और बहा दो अस्थियों को। या फिर यह नौका आरक्षित कर धार के मध्य जाकर प्रवाहित कर आओ। मैंने चुपचाप अस्थियों को तट पर छोड़ दिया। जल से मेरा संपर्क तलवे भर का था। नदी उसे मेरे सामने से तल में ले गई। वह कुम्भ दोलित होकर समाधिस्थ हो गया। एक क्षण का मौन छाया। फिर वह शाश्वत धारा बहती रही। जिसमें शताब्दियों के शत-शत सहस्र कुम्भ समाधिस्थ हुए पड़े हैं।

कितनी ही प्रार्थनाओं, स्नानों के क्षण। कितने ही तर्पणों के कण बिखर बिखर कर नदी में मिल गए हैं।मानव सभ्यता के गतिमान होने का वैसा उदाहरण प्रकृति में दूसरा नहीं मिलता। नदी तो साक्षात जीवन है। बहता हुआ जीवन। इसीलिए मैं अनेक अवसरों पर स्नान आदि से अधिक बाहर रहकर उसमें डूबता हूं। नदी को बिना छुए उसमें उतर जाने का अनुभव भी होना चाहिए। वह अनुभव हो जाय तो गंगा-स्नान ही समझिए। मुझे याद आता है, गंगा में अस्थियां प्रवाहित कर इसी यमुना की धार में एक वस्तु छोड़ आया था। मैंने जानबूझ कर उसे यमुना के लिए रख छोड़ा था। वह पुल के ऊपर से मेरे हाथों से छूटा और कुछ घूंट जल पीकर अदृश्य हो गया। एक कथा समाप्त हो गई।



आज नदी के पास से लौटकर घर आया। कुछ देर निश्चल बैठा रहा। तभी एक आवाज़ उठी–पापा,कव्वे को चावल खिला आओ! एक पात्र में भात के कुछ दाने लेकर छत पर गया। वहां अधिकांश समय सूना रहता है। आज भी सूना था। मैं कुछ हताश हुआ।‌ कव्वे नहीं दीख रहे थे।भात के दाने मुंडेर पर रख दिए। एक कव्वा मानो प्रतीक्षारत था। अगले ही क्षण वह सामने से पंख फैलाते हुए उड़कर आया। मेरे ठीक सामने उसने निर्भय होकर भात के दाने खाए। सुना है पितृपक्ष में कव्वे आते हैं। उन्हें श्रद्धा से याद करना पड़ता है। मैंने उन्हें याद किया था। वह मेरी आशा से बहुत बहुत पहले आया। मैं उसे भात खाते हुए देखता रहा। मुझे अस्थियां याद आईं।सूनी छत पर, खुले आकाश के नीचे नदी मेरे साथ-साथ आयी। मेरी आंखों में रह गई। आंखों से अधिक भीतर भर गई।

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