धर्म-संस्कृति

उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत

उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत… राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया। पिथौरागढ़ में राजा मल्ल शासन के तहत खङकोट निर्मित ईंटो के किले को 1560 ई. में पिथौरागढ़ के जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। पिथौरागढ़ पर 1622 ई. में चंद वंश का आधिपत्य रहा है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। #सत्येन्द्र कुमार पाठक

उतराखण्ड राज्य की स्थापना 9 नवम्बर 2000 ई. को हुई है। उतराखण्ड को 2006 ई. तक उत्तरांचल कहा गया है। उतराखण्ड राज्य की उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल, पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश राज्य सीमा से घिरा है। उतराखण्ड राज्य के गठन से पूर्व 9 नवम्बर 2000 ई. के पूर्व उत्तर प्रदेश का भाग था। उत्तराखण्ड का उत्तरी भू भाग पर गढ़वाल का केदारखण्ड और मानसखण्ड ( कुमांऊँ) के रूप में इसका उल्लेख है। हिमालय के मध्य फैलाव के लिए प्रयुक्त उत्तराखंड को किया जाता था। उत्तराखण्ड को उत्तरांचल, “देवभूमि क्षेत्र धर्ममय और दैवशक्तियों की क्रीड़ाभूमि तथा सनातन धर्म के उद्भव और महिमाओंं की सारगर्भित कुंजी व रहस्यमय है। पौरव, कुशान, गुप्त, कत्यूरी, रायक, पाल, चन्द, परमार व पँवार राजवंश और ब्रिटिश साम्राज्य का शासन था।

उत्तराखंड में ऋषियो, संतों, शैव, वैष्णव, द्वापरयुग में कृष्णद्वैपायन ऋषि व्यास ने माना में महाभारत लिखा, पांडवों का यात्रा क्षेत्र, गढ़वाल और कुमाऊं साम्राज्य के राजवंशों में दूसरी शताब्दी ई.पू. पू. में कुनिंदा शैव धर्म के प्रारंभिक रूप का पालन करते और पश्चिमी तिब्बत के साथ नमक का व्यापार करते थे। गढ़वाल किटो उत्तरी ऊंचे इलाकों और क्षेत्र में बसने वालों को भोटिया, राजी, बुक्शा और थारू लोगों के पूर्वज थे। ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुसार हूण, शक, नाग, खश आदि जातियां हिमालयी क्षेत्र में निवास करती थी। संहिताओं में केदारखण्ड व मानसखण क्षेत्र का उल्लेख है। मानसखण्ड का कुर्मांचल व कुमांऊँ की चर्चा राजाओं के शासन काल में हुआ। कुर्मांचल पर राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर 1790 ई. तक रहने के बाद नेपाल की गोरखा सेना ने कुमांऊँ पर आक्रमण कर कुमांंऊँ राज्य को अपने अधीन कर दिय था।

गोरखाओं का कुमांऊँ पर 1790 ई. से 1815 ई. तक शासन के पश्चात 1815 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य से परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गयी थी। ब्रिटिश साम्राज्य ने कुमांऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमांऊँ को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर कुमांऊँ पर ब्रिटिश साम्राज्य का शासन 1815 ई. से प्रारम्भ हुआ था। केदार खण्ड गढों (किले) पर पँवार वंश के राजा ने गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना कर श्रीनगर में राजधानी बनाया था। केदारखण्ड का गढ़वाल को 1803 ई. में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर गढ़वाल राज्य को अपने अधीन कर लिया था। महाराजा गढ़वाल का महाराजा ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से सहायता मांगी थी।

ब्रिटिश सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप 1815 ई. में परास्त कर दिया लेकिन गढ़वाल के महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण ब्रिटिश साम्राज्य ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर गढवाल के महाराजा को टिहरी जिले के उत्तरकाशी सहित का भू-भाग वापस किया। गढ़वाल के महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 ई.को टिहरी स्थान पर भागीरथी और अलकनन्दा के संगम पर अवस्थित देवप्रयाग में राजधानी स्थापित की थी। महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली स्थान पर नरेन्द्र नगर में दूसरी राजधानी स्थापित की थी। देहरादून व पौडी गढवाल (चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एवं टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन 1815 ई. में हुआ था।

उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ था। कंपनी का शासन का दौर 1815 ई. से 1857 ई. तक सामान्यतः शान्त और गतिशीलता से बंचित शासन के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार में आने के बाद क्षेत्र ब्रिटिश गढवाल कहा जाता था। गढवाल के राजकुमार सुदर्शनशाह को कंपनी ने आधा गढ़वाल देकर मना लिया था। हेनरी रैमजे का शासन 1856 ई. से 1884 ई. तक ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली के रूप में पहचाना गया। इसी दौरान सरकार के विनोद 1868 ई. तथा 1871 में अल्मोड़ा अखबार की शुरुआत हुई। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद 1905 ई. में अल्मोडा के नंदा देवी स्थान पर विरोध सभा में कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उत्तराखंड से हरगोविन्द पंत, मुकुन्दीलाल, गोविन्द बल्लभ पंत बदरी दत्त पाण्डे आदि युवक सम्मिलित हुए थे। हरिराम त्रिपाठी ने 190 6 ई. में वन्देमातरम् का कुमाऊँनी अनुवाद किया गया था।

भारतीय स्वतंत्रता आंन्देालन में उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखंड के ज्यादा प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे। भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त १९४९ में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उ.प्र.) का एक जिला घोषित किया गया। भारत-चीन युद्ध 1962 की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन १९६० में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया है। कत्यूरी राजा वीर देव के पश्चात कत्युरियों के साम्राज्य का पूर्ण विभाजन होने पर कत्युरियों के हाथों से गढ़वाल निकल गया तथा शेष कुमांऊँ क्षेत्र छह कबीलों में बँट जाने से कतुरिस साम्राज्य को नेपाली राजाओं में अहोकछला 1191 ई. तथा कराछला देव 1223 ई. में अपने राज्य में मिला लिया।यह दोनों आक्रमण विभिन्न कबीलों में परस्पर शत्रुता के कारण निर्णायक के तत्पश्चात 52 गढ़ों में विभाजित हुआ था। सोलहवी शताब्दी में कनक पाल के वंशज चांदपुर का सरदार अजय पाल चांदपुर गढ़ी सम्पूर्ण गढ़वाल को एक कर दिया था।

पांडुकेश्वर की तांबे की प्लेटें (ताम्रपत्र) के अनुसार बेराज की राजधानी कार्तिकेयपुरा -माना घाटी और कात्यूर घाटी में स्थित थी। एटकिंशन ने काबुल की घाटी से इस वंशज की उत्पत्ति का पता लगाया तथा उनकों काटोरों से जोड़ा।गैरौला और नौटियाल के अनुसार, कात्यूरी छोटी खासा जनजाति थी जो मूलतः गढ़वाल के उत्तर में जोशीमठ में रहती थी तथा बाद में कुमाऊं की कात्यूर घाटी में चली गई। कात्यूरियों ने पौरवों और तिब्बती हमलावरों के पतन के बाद अपनी ताकत बढ़ाई तथा ७ वीं शताब्दी के अन्त और ८ वीं शताब्दी के आरम्भ में वे स्वतन्त्र हो गए।कुमांऊँ को मानसखण्ड कहा गया। अक्टूबर १८१५ में डब्ल्यू जी ट्रेल ने गढ़वाल तथा कुमांऊँ कमिश्नर का पदभार संभाला। उनके पश्चात क्रमशः बैटन, बैफेट, हैनरी, रामसे, कर्नल फिशर, काम्बेट, पॉ इस डिवीजन के कमिश्नर आये तथा उन्होंने भूमि सुधारो, निपटारो, कर, डाक व तार विभाग, जन सेहत, कानून की पालना तथा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार आदि जनहित कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

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अंग्रेजों के शासन के समय हरिद्वार से बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा वहां से कुमांऊँ के रामनगर क्षेत्र की तीर्थ यात्रा के लिये सड़कों का निर्माण हुआ और मि. ट्रैल ने १८२७-२८ में इसका उदघाटन कर इस दुर्गम व शारीरिक कष्टों को आमंत्रित करते पथ को सुगम और आसान बनाया। लैण्डसडाउन स्थान पर गढ़वाल सैनिकों की ‘गढ़वाल राइफल्स’ दो रेजीमेंटस स्थापित की गईं।निःसंदेह आआजादी के पश्चात 1947 ई. में गढ़वाल जिला बना है। कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन अल्मोड़ा को गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन के बाद कल्याण चंद द्वारा 1568 ई.में अल्मोड़ा की स्थापना केन्द्रीय स्थान पर की गई। कल्याण चंद द्वारा चंद राजाओं के समय में अल्मोड़ा को राजपुर कहा जाता था। दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह भगवान शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था।

एक बार दक्ष प्रजापति ने देवताओं को यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमान्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपनी निरादर होते हुए देखने पर अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में कहते हुए कूद पड़ी कि ‘मैं अगले जन्म में शिव को अपना पति बनाऊँगी। अपने मेरा और मेरे पति का निरादर किया इसके प्रतिफल – स्वरुप यज्ञ के हवन – कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।’ जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी, तब उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट – भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी – देवता शिव के रौद्र – रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी – देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध को शान्त किया।

दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको आशीर्वाद दिया। माता सती के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सती के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश – भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ – जहाँ पर शरीर के अंग किरे, वहाँ – वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। सती के नयन गिरने के कारण नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। माता सती की नयन गिरने के कारण नैनीताल स्थान है। माता सती के नैन से अश्रुधार ताल का रूप ले लिया। भगवान शिव पत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है। खस वंश शासन द्वारा पिथौरागढ़ में किले या कोटों का निर्माण किया गया है।पिथौरागढ़ के भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊंचाकोट हैं। खस वंश के बाद कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ था। मल्ला सारी वंश का राजा अशोक मल्ल, बलबन का समकालीन था।

राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया। पिथौरागढ़ में राजा मल्ल शासन के तहत खङकोट निर्मित ईंटो के किले को 1560 ई. में पिथौरागढ़ के जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। पिथौरागढ़ पर 1622 ई. में चंद वंश का आधिपत्य रहा है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल 1437 ई. से 1450 ई. में रत्न चंद ने नेपाल के डोटी राजा को परास्त कर सौर घाटी पर अधिकार कर लिया एवं वर्ष 1449 ई. में पिथौरागढ़ को कुमाऊँ या कुर्मांचल में मिला लिया। शासनकाल में पीरू या पृथ्वी गोसांई ने पिथौरागढ़ किला बनाया था। चंदों ने कुमाऊँ पर1790 ई. तक शासन किया। टिहरी को ‘त्रिहरी’ का कारण पाप जन्मते मनसा, वचना, कर्मा से धोने के कारण त्रिहरि 888 ई. तक नाम थे। मालवा के राजकुमार कनकपाल ने चमोली जिले का बद्रीनाथ के दर्शन करने के क्रम में राजा भानु प्रताप द्वारा राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही अपना राज्‍य भी उन्‍हें दे दिया।

धीरे-धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियाँ एक-एक कर सारे गढ़ जीत कर अपना राज्‍य बड़ाती गयीं। इस प्रकार सन्‌ १८०३ तक सारा (९१८ वर्षों में) गढ़वाल क्षेत्र इनके अधिकार में आ गया। उन्‍ही वर्षों में गोरखाओं के असफल हमले (लंगूर गढ़ी को अधिकार में लेने का प्रयास) भी होते रहे, लेकिन सन्‌ १८०३ में आखिर देहरादून की एक लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्वमुन शाह मारे गये। लेकिन उनके शाहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस समय छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिये गये। उत्तरकाशी को 24 फरवरी 1960 ई. में जिला बना दिया गया है। मई १९३८ में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करकने के आंदोलन का समर्थन किया। एक नए राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०००) उत्तराखण्ड की स्थापना ९ नवम्बर २००० को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।


उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत... राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया। पिथौरागढ़ में राजा मल्ल शासन के तहत खङकोट निर्मित ईंटो के किले को 1560 ई. में पिथौरागढ़ के जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। पिथौरागढ़ पर 1622 ई. में चंद वंश का आधिपत्य रहा है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। #सत्येन्द्र कुमार पाठक

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