
✍️ सुनील कुमार माथुर
स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार, जोधपुर (राजस्थान)
बचपन में जब दादा-दादी या नाना-नानी कहानियाँ सुनाते थे, तो अक्सर एक बात दोहराते थे—“पहले के ज़माने में घरों में ताले नहीं लगते थे।” कुछ घरों में तो दरवाज़े भी नहीं हुआ करते थे। यह कथन केवल भौतिक स्थिति को नहीं, बल्कि मानव के मानव पर विश्वास को दर्शाता था। समय बदला, समाज बदला, और मानवीय मूल्यों में गिरावट आती गई। जब लोग चोरी करने लगे, तब घरों में ताले और ऊँची दीवारें खड़ी होने लगीं। यह सब इस बात का संकेत था कि मनुष्य ने मनुष्य पर से विश्वास खो दिया। आज स्थिति यह है कि “इंसान पर भरोसा नहीं, कब क्या कर बैठे।”
यही कारण है कि अब हर गली-नुक्कड़, हर घर और दफ्तर में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं—एक दूसरे पर नज़र रखने के लिए, भरोसा करने के लिए नहीं। आज हम एक ऐसे नैतिक चौराहे पर खड़े हैं जहाँ हर समय चौकस और सजग रहने की आवश्यकता है। लेकिन सावधानी और सजगता के नाम पर डर को जीवन में स्थान देना भी ठीक नहीं, क्योंकि डर हमारी सफलता में सबसे बड़ा अवरोधक बन सकता है। किसी महापुरुष ने कहा है—
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“बनावट, दिखावट, सजावट—इन्हीं के कारण है सारी गिरावट।”
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पहले लोग अच्छे हुआ करते थे, आजकल लोग अच्छा बनने का अभिनय करते हैं।
ज्ञान की ज्योति
जिस तरह मंदिरों में अखंड ज्योति निरंतर जलती रहती है, उसी तरह समाज में ज्ञान की ज्योति भी सदा जलती रहनी चाहिए। यही ज्योति मानव मन के अंधकार को दूर कर सकती है। लेकिन यह कार्य केवल सरकारों पर छोड़ देना उचित नहीं। ज्ञान और शिक्षा का प्रसार तभी संभव है जब समाज सामूहिक रूप से प्रयास करे। आज जितने भी सार्थक व क्रांतिकारी बदलाव आ रहे हैं, वे भामाशाहों और सामाजिक संगठनों के सहयोग से ही संभव हो पा रहे हैं। सरकारें तो अक्सर सस्ती लोकप्रियता और दिखावटी योजनाओं में ही व्यस्त रहती हैं।
हमें यह समझना होगा कि शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन लाना आवश्यक है। पोषाहार व दूध वितरण जैसे कार्यक्रमों पर अत्यधिक ध्यान देकर हम मूल शिक्षा के उद्देश्य से भटक रहे हैं। ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षण संस्थाओं में मूलभूत सुविधाएं, योग्य शिक्षक और एक ज्ञानोन्मुख वातावरण सृजित किया जाए, ताकि हर बच्चा देश का आदर्श नागरिक बन सके।
विचारों की ऊँचाई
ऊँचाई पर वे लोग पहुँचते हैं, जो बदला नहीं, बदलाव लाने की सोच रखते हैं। रिश्तों की बात करें तो—
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“रिश्ते, चाहे दोस्ती के हों या प्रेम के, मोती की तरह होने चाहिए — छोटे मगर अनमोल।”
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📌 संपादकीय टिप्पणी (Editor’s Note):
सुनील कुमार माथुर का यह लेख समकालीन समाज में नैतिक मूल्यों की गिरावट और विश्वास संकट को अत्यंत सरल, परंतु प्रभावशाली भाषा में रेखांकित करता है। लेख में सामाजिक चेतना, नैतिक पुनर्जागरण और शिक्षा सुधार जैसे विषयों को आपस में जोड़कर प्रस्तुत किया गया है। लेखक का दृष्टिकोण स्पष्ट, ईमानदार और जनहित से प्रेरित है। यह लेख हमें आत्मावलोकन करने और एक बेहतर समाज की दिशा में सोचने को प्रेरित करता है।
— संपादक
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