धर्म-संस्कृति

अद्वैतवाद के प्रणेता आदि शंकराचार्य

सत्येन्द्र कुमार पाठक

दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक, अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान करने वाले आदिशंकराचार्य थे। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी टीकाएँ की रचना और सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद तथा मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया था। विभिन्न ग्रंथों के अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म केरल राज्य के चेर साम्राज्य के कालड़ी निवासी त्वष्टसार ब्राह्मण परिवार में वैशाख शुक्ल पंचमी 508-9 ई. पू. हुआ था और 32 वर्षीय शंकराचार्य की महासमाधि केदारनाथ में 477 ई. पू. में हुई थी। आदि शंकराचार्य द्वारा भारतवर्ष के उत्तर में उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले के ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, गुजरात राज्य के अरबसागर और गौतमी नदी के संगम तट पर स्थित द्वारिका में शारदा पीठ और उड़ीसा राज्य के पुरी में गोवर्धन पीठ की स्थापना की थी।

आदिशंकराचार्य के गुरु आचार्य गोविन्द भगवत्पाद को सम्मानित शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक कहा गया है। आदि शंकराचार्य के विचार आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित थे, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार पूरे भारतवर्ष में किया था।

कलियुग के पहले चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञान को उज्जीवित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, और वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरूप भगवत्पाद शंकराचार्य की दृष्टि तथा कृति सर्वथा स्तुत्य है। कृतयुग (सतयुग) में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु और शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणों की संरचना की और ब्रह्मसूत्रों की संरचना कर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा।

कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना की और विधर्मियों, पन्थायियों तथा मीमांसकादि से शास्त्रार्थ कर, परकायप्रवेश करके, नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ और भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्री जगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकट कर, चतुराम्नाय-चतुष्पीठों की स्थापना कर धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया। व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र, कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिए व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण संवाद के माध्यम से सामंजस्य बनाए रखने की प्रेरणा प्रदान की।

शंकराचार्य ने भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की स्थापना की, जैसे नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर, शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं की स्थापना की। केरल के कालपी में शिव भक्त ब्राह्मण शिवगुरु भट्ट की पत्नी सुभद्रा के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी 507 ई. पू. को शंकर भट्ट का जन्म हुआ था। तीन वर्ष की आयु में शंकर भट्ट के पिता शिवगुरु भट्ट का देहांत हो गया। छह वर्ष की अवस्था में प्रकांड विद्वान और आठ वर्ष की अवस्था में शंकर भट्ट ने संन्यास ग्रहण किया। नदी किनारे मगरमच्छ ने शंकराचार्य का पैर पकड़ लिया था, तब शंकराचार्य जी ने अपनी माँ से कहा, “माँ, मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो, नहीं तो हे मगरमच्छ मुझे खा जाएगा,” इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत उन्हें संन्यासी होने की आज्ञा दी, जैसे ही उन्होंने संन्यास लिया, मगरमच्छ ने उनका पैर छोड़ दिया।

गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण करने के बाद शंकरभट्ट ने काशी में निवास किया और बिहार के दरभंगा जिले के विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण कर सनातन धर्म और वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। शंकराचार्य 32 वर्ष की अल्प आयु में सम्वत 477 ई. पू. में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन कर गए थे। भारतीय संस्कृति के विकास और संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है।


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