
डॉ. शशि वल्लभ शर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिंदी (पीजी कॉलेज अम्बाह, जिला मुरैना म.प्र.)
यह विचार अब तेजी से स्वीकार किया जा रहा है कि मनुष्य केवल वह नहीं है जो बाहर से दिखाई देता है, बल्कि वह एक जटिल समुच्चय है — उसके जन्मजात स्वभाव, सामाजिक अनुभव, मानसिक स्थितियाँ, भावनात्मक संस्कार और जैविक संरचना मिलकर उसकी चेतना का निर्माण करते हैं। ऐसे में यह प्रश्न अक्सर उठता है कि यदि कोई विचार, भावना या वृत्ति व्यक्ति की प्रगति में बाधा बन रही हो और वह इतनी गहराई से जुड़ी हो कि मानो उसकी जैविक बनावट में ही शामिल हो गई हो — तो क्या उस स्तर पर जाकर उसमें परिवर्तन संभव है?
आधुनिक विज्ञान, प्राचीन भारतीय अध्यात्म और योगशास्त्र, तीनों इस प्रश्न का उत्तर अपने-अपने ढंग से देते हैं, पर अंततः सभी एक ही बिंदु की ओर संकेत करते हैं — कि वास्तविक परिवर्तन का आरंभ भीतर से होता है। विज्ञान की दृष्टि से बात करें तो हाल के वर्षों में इपीजिनेटिक्स और न्यूरोप्लास्टिसिटी जैसे शोध-क्षेत्रों ने इस विश्वास को बल दिया है कि हमारी जैविक संरचना स्थिर नहीं, लचीली है। इपीजिनेटिक्स यह स्पष्ट करता है कि जीवनशैली, आहार, विचार, भावनाएं और यहाँ तक कि सामाजिक परिवेश भी यह तय कर सकते हैं कि हमारे जीन कैसे व्यवहार करेंगे। दूसरी ओर, न्यूरोप्लास्टिसिटी यह दर्शाती है कि मस्तिष्क अपनी संरचना को बदल सकता है — नये अनुभव, सकारात्मक आदतें और गहरी आत्मचिंतन प्रक्रियाएं मस्तिष्क में नये मानसिक मार्ग बना सकती हैं और पुराने मार्गों को निर्बल कर सकती हैं।
मनोविज्ञान की एक अत्यंत संवेदनशील शाखा — साइकोन्यूरोइम्यूनोलॉजी — यह प्रमाणित कर चुकी है कि मन की स्थिति शरीर की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली को भी प्रभावित करती है। नकारात्मक भावनाएं जैसे भय, चिंता और अपराधबोध केवल मानसिक विकार नहीं, बल्कि शारीरिक असंतुलन के जनक भी बन सकते हैं। इसके विपरीत, प्रेम, करुणा, क्षमा और ध्यान जैसे भावनात्मक अनुभव शरीर को स्वस्थ और संतुलित बनाते हैं।
जहाँ विज्ञान ठहर जाता है, वहाँ से अध्यात्म आरंभ होता है। भारतीय दर्शन में ‘संस्कार’ को केवल मनोवैज्ञानिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चुनौती माना गया है। श्रीमद्भगवद्गीता आत्मा को अविनाशी मानते हुए भी चित्त के विकारों को तप, ध्यान और ज्ञान से शुद्ध करने की बात करती है। अनेकानेक दार्शनिक अपने अपने विचार इस सम्बन्ध में व्यक्त करते हैं जो गीता से मेल खाते हैं।
योग इस गूढ़ प्रक्रिया को एक व्यवस्थित मार्ग देता है। कुण्डलिनी जागरण, योग निद्रा, प्राणायाम और ध्यान जैसी विधियाँ न केवल मन को शांत करती हैं, बल्कि व्यक्ति को स्वयं की गहराइयों से जोड़ती हैं — वहाँ तक, जहाँ उसकी वृत्तियाँ अंकित हैं। योग के माध्यम से यह संभव होता है कि व्यक्ति अपने अवचेतन में जाकर उन संस्कारों को पुनर्लिख सके जो अब उसकी प्रगति में अवरोध हैं।
इस समग्र दृष्टिकोण से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य अपने भीतर के नक्शे को फिर से गढ़ सकता है। उसकी चेतना केवल अतीत का संकलन नहीं, भविष्य की रचना का साधन भी है। जब विज्ञान उसकी पुष्टि करता है, अध्यात्म उसे दिशा देता है और योग उसे अभ्यास में लाता है, तब वह प्रक्रिया केवल मानसिक परिवर्तन की नहीं, बल्कि एक जीवंत पुनर्जन्म की बन जाती है। न जाने कितने संत महात्माओं ने स्वयं का रूपांतर कर आध्यामिक उन्नति प्राप्त की है।।
यह वह बिंदु है जहाँ से मानव चेतना न केवल स्वयं को पुनःसंवारती है, बल्कि अपनी भावी पीढ़ियों के लिए भी एक नया संस्कार रचने में सक्षम होती है। यह संस्कारों के पुनर्लेखन और आत्मा के उत्कर्ष का युग है — और यह बदलाव कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर से शुरू होता है।
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🖋️ संपादकीय टिप्पणी (Editor’s Note):
इस लेख में डॉ. शशि वल्लभ शर्मा ने विज्ञान, अध्यात्म और योग की समन्वित दृष्टि से चेतना, संस्कार और आत्मिक विकास की गहन पड़ताल की है। इपीजिनेटिक्स और न्यूरोप्लास्टिसिटी जैसे आधुनिक शोध-क्षेत्रों को भारतीय योग और दर्शन से जोड़ते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि व्यक्ति के भीतर परिवर्तन की अपार संभावनाएं निहित हैं। यह लेख आत्मपुनर्रचना और आध्यात्मिक उत्कर्ष की दिशा में एक प्रेरणास्पद चिंतन है — जो पाठकों को भीतर झांकने और स्वयं को नये सिरे से गढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
-संपादक, राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार
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