साहित्य लहर

कविता : धरती की पीड़ा

नित्य कट रहे हरे-भरे जंगल बन रहे आलीशान मकान हैं निज स्वार्थ में लीन मानव बदल रहा आचार-विचार है देख दशा अपनी,धरती मां परेशान है। #सुनील कुमार, बहराइच (उत्तर प्रदेश)

हरी-भरी थी कभी,आज हुई वीरान है
देख दशा अपनी, धरती मां परेशान है।

पुत्रवत पाला जिसे,वही कर रहा अत्याचार है
देख दशा अपनी, धरती मां परेशान है।

नित्य कट रहे हरे-भरे जंगल
बन रहे आलीशान मकान हैं
निज स्वार्थ में लीन मानव

बदल रहा आचार-विचार है
देख दशा अपनी,धरती मां परेशान है।


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