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धर्म, समाज, सभ्यता और संस्कृति

भारत में रामकथा का लोक आदर्श

भारत में धर्म की इस अवधारणा को सदियों से जीवन के पाप पुण्य की कथा का आधार माना जाता है। वाल्मीकि ने इसे वेदों ब्राह्मणों उपनिषदों आरण्यकों और पुराणों के अवगाहन से प्राप्त किया था। राम का चरित्र उसे चरितार्थ करता है। #राजीव कुमार झा

तुलसीदास के अलावा भक्ति आंदोलन के तमाम संतों ने राष्ट्र और समाज के उद्धारक के रूप में राम के चरित्र को आधार बनाकर मध्यकाल के पतनशील सामाजिक राजनीतिक परिवेश में जिस आदर्श को जनजीवन के सामने रखा उसे आधुनिक चिंतक भी भारत के नवनिर्माण और समग्र उत्थान का सबसे सच्चा पंथ स्वीकार करते हैं।

गांधीजी ने भी राम के जीवनदर्शों को स्वीकार किया और अपने अंतिम क्षणों में हे राम! के पावन शब्दों का उच्चारण करते हुए जीवनलीला समाप्त की।  यह काल भारतीय सभ्यता और संस्कृति के उत्कर्ष का कल था या फिर इसके गहरे संकटों और झंझावातों के बीच देश की आजादी के इस दौर में हम विभाजन के साथ नई चुनौतियों का सामना कर रहे थे.

आज भी इसके बारे में देश की सारी जनता तमाम जटिल बातों से अलग थलग होते राम के अस्तित्व और उनके धर्म से गहराई से एकाकार होती दिखाई देती है। यहां राम सबके लिए सहिष्णुता शांति प्रेम उद्धार और बंधुत्व के प्रतीक प्रतीत होते हैं। हम सब उन्हें निरंतर अपने संघर्षों में प्रेरक और संबल मानते रहेंगे।

भारत में धर्म की इस अवधारणा को सदियों से जीवन के पाप पुण्य की कथा का आधार माना जाता है। वाल्मीकि ने इसे वेदों ब्राह्मणों उपनिषदों आरण्यकों और पुराणों के अवगाहन से प्राप्त किया था। राम का चरित्र उसे चरितार्थ करता है।


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