गीत : तूने सब खंडित कर डाला
नहीं दिखाई देते उपवन जिनमें गुंजित होता था कलरव, आंखों से दूर हुई हरियाली जिसे देख पोषित था बचपन। नग्न हुए अब पर्वत भी सब जिनमें संचित थी अतुल निधि, शुष्क हो गई जल धाराएं जिन्हें देख बिलखे रत्नाकर। #अशोक राय वत्स, जयपुर
धरती का वक्ष स्थल कर छननी जननी को दंडित कर डाला।
क्या सोच रहा है मनुज आज तूने सब खंडित कर डाला।।
चटक धूप में सिसक सिसक कर धरती का कण कण है कहता,
सूख गए क्यों अविरल झरने जिनमें था शीतल जल बहता।
लुप्त हो गई ताल तलैया पोखर सिमट गए पुस्तक में,
अभी समय है त्याग दे तंद्रा कहीं जीवन ना बन जाए सपना।
आश्रय मिलता नहीं विहंग को क्यों उससे वंचित कर डाला।
क्या सोच रहा है मनुज आज तूने सब खंडित कर डाला।।
उठ जाग मनुज पौरुष अपना है भार तेरे अब कंधों पर,
है कर्ज़ धरा का तुझ पर जो उससे खुद को तूं उॠण कर।
जिसने तुमको पाला पोसा पहचान तुम्हें दी दुनिया में,
है आज धरा वह संकट में इसलिए सिसकती है पल पल।
जिन नदियों ने सींचा सबको उनको भी वर्जित कर डाला।
क्या सोच रहा है मनुज आज तूने सब खंडित कर डाला।।
नहीं दिखाई देते उपवन जिनमें गुंजित होता था कलरव,
आंखों से दूर हुई हरियाली जिसे देख पोषित था बचपन।
नग्न हुए अब पर्वत भी सब जिनमें संचित थी अतुल निधि,
शुष्क हो गई जल धाराएं जिन्हें देख बिलखे रत्नाकर।
जिस जिसने उपकार किया सबको मर्दित कर डाला।
क्या सोच रहा है मनुज आज तूने सब खंडित कर डाला।।