साहित्य लहर

कविता : मजदूर

कुदरत के कहर के आगे पलायन को मजबूर है भूखा-प्यासा दिन-रात चल रहा मंजिल न जाने कितनी दूर है कितना बेबस मजदूर है। सूनी आंखों में थे जो सपने अचानक हुए सब चूर-चूर हैं कितना बेबस मजदूर है। #सुनील कुमार, बहराइच (उत्तर प्रदेश)

वक्त और हालात से मजबूर है
कितना बेबस मजदूर है।

दो जून की रोटी के खातिर
सदा रहता अपनों से दूर है
कितना बेबस मजदूर है।

अपनों की खुशियों के खातिर
सब कुछ करने को मजबूर है
कितना बेबस मजदूर है।

दिन-रात करता ये कड़ी मेहनत
पर मिलता न फल अनुकूल है
कितना बेबस मजदूर है।

कुदरत के कहर के आगे
पलायन को मजबूर है
भूखा-प्यासा दिन-रात चल रहा
मंजिल न जाने कितनी दूर है
कितना बेबस मजदूर है।

सूनी आंखों में थे जो सपने
अचानक हुए सब चूर-चूर हैं
कितना बेबस मजदूर है।


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