वो भी क्या दिन थे…?
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वो भी क्या दिन थे…? शुभकामनाओं के कार्ड भेजना बंद हो गये जिससे आज की युवाशक्ति डाकघर व पोस्टमैन को भूल सी गई है। किसी किसी ने तो पोस्टमैन को कभी देखा भी नहीं हैं फिर भला उसकी साइकिल की घंटी की आवाज को कैसे जानें। #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर (राजस्थान)
आज भी वो दिन याद आते हैं जब दीपावली की छुट्टियां आती थी तब घर की साफ सफाई करते थे और घरों में सफेदी व कमरों में रंग करते थे। दीपावली की छुटिटयों का होमवर्क तो छुट्टियां आती उससे पहले ही कर लेते थे। चाय की चुस्कियों के बीच सफेदी व रंग रोगन का आनन्द ही अलग था। घर में महिलाएं तरह तरह के पकवान बनाती थी उसकी खुश्बू ही मन को आनंदित कर देती थी। न जाने वो दिन कहां चले गये। या यू़ कहे कि वो दिन भी क्या दिन थे।
गर्म कपड़ों को धूप में देना – दशहरा जाते ही गर्म कपडों के बक्से खुल जाते थे और उन्हें धूप दी जाती थी ताकि सारी सिलन दूर हो जाये। इसी के साथ घरों – दुकानों एवं प्रतिष्ठानों में भी साफ सफाई आरम्भ हो जाती थी। कूची को रात में पानी में भिगोकर सवेरे उसे सोटी से कूटकर फिर सफेदी की जाती थी। वही रात में ही एक पुरानी मटकी में चूना भिगोया जाता था व उसे सवेरे छानकर फिर उसमें नील आवश्यकता के अनुसार डाल कर सफेदी की जाती थी।
धीरे धीरे आदमी आलसी होता गया व सरकारी नौकरी का स्थान प्राइवेट नौकरी ने ले लिया जिससे छुट्टी की समस्या पैदा हो गई व अब यह रंगाई-पुताई मजदूरों से कराने का चलन आरम्भ हो गया। वही कुची की जगह पहले ब्रुश ने ली और अब रोलर से रंग रोगन हो रहा है। वही श्रमिक मनमानी मजदूरी वसूल रहा है चूंकि वह जानता है कि यह काम अब जनता-जनार्दन की पहुंच से दूर हो गया है यही वजह है कि उनकी मनमानी भी बढ गई। मनमानी मजदूरी ही नहीं लेते है अपितु दो तीन बार दिन में चाय व गुटका और चाहिए।
रद्दी व कबाडी – सफाई के दौरान जो रद्दी अखबार, किताबें कापियां व अनावश्यक सामान निकलता था वह कबाडी को बुलाकर बेच दिया जाता था और मोलभाव किया जाता था। उसकी तराजू और बाट की जाचं की जाती थी ताकि वह कोई बदमाशी न कर लें। उसे परिवार के लोग घेर कर खडे हो जाते थे और सभी की निगाहें उसके हाथ व तराजू पर टिकी रहती थी। लेकिन आज वह बेईमानी कर रहा तो भी कोई देखने वाला नहीं है और वे दिन दहाड़े धड़ल्ले से अपने ग्राहकों को लूट रहे हैं।
पकवानों की महक – महिलाएं अपनी पाक कला का परिचय देते हुए घरों में तरह-तरह के पकवान, मिष्ठान, गुंजे, सलेवडे, खिच्चे व पापड बनाती थी और जब शाम को उन्हें तला जाता था तब पूरे घर में पकवानों की महक फैल जाती थी।
दीपावली कार्डों को भेजने का सिलसिला – धनतेरस आने की ख़ुशी के साथ ही शुरू हो जाता था और बाहर से भी दीपावली की शुभकामनाओं के कार्ड आने शुरू हो जाते थे। कार्ड खरीदने वालों की दुकानों पर भीड़ लगी रहती थी। लेकिन जब से मोबाइल आया है तब से दीपावली की शुभकामनाओं के कार्ड भी आने बंद हो गये। अब तो शुभकामनाएं केवल व्हाट्सएप पर ही पढने को मिलती हैं और वह भी फोर्डवर्ड की हुई।
अतिथियों का मान सम्मान – दीपावली की रामा शामा घर घर जाकर की जाती थी व आने वाले हर अतिथि का मान सम्मान किया जाता था। इलायची सुपारी की मनुवाहर के बाद पकवान मिष्ठान से सत्कार किया जाता था। काफी देर तक इसी बहाने गप्प शप्प हो जाती थी। लेकिन व्हाट्सएप ने इस शिष्टाचार को भी समाप्त कर दिया। आज पांच दिवसीय दीपोत्सव का त्योहार एक औपचारिकता मात्र बनकर रह गया है।
शुभकामनाओं के कार्ड भेजना बंद हो गये जिससे आज की युवाशक्ति डाकघर व पोस्टमैन को भूल सी गई है। किसी किसी ने तो पोस्टमैन को कभी देखा भी नहीं हैं फिर भला उसकी साइकिल की घंटी की आवाज को कैसे जानें। इतना ही जगमगाते दीपकों का स्थान नन्ही नन्ही लाईटों ने ले लिया है फिर भी दीपक की जगमगाती रोशनी का वे मुकाबला नहीं कर सकती। आज केवल यादें शेष रह गई है। वो भी क्या दिन थे। या यूं कहें कि कहां गये वो दिन।
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