साहित्य लहर

माँ, तुम कैसे भाँप लेती

गौरव हिन्दुस्तानी
बरेली, उत्तर प्रदेश 

मेरी देह का बढ़ता ताप
जब कभी ज्वर का
रूप धारण करता
माँ ! तुम कैसे भाँप लेतीं |

तुम्हारी कोमल हथेलियाँ
स्पर्श करती तपते माथे को
तुम जान लेतीं मेरे देह के
उच्च-निम्न ताप को,
थर्मामीटर की आवश्यकता
फिर कहाँ रहती
माँ ! तुम कैसे भाँप लेतीं |

औषधियाँ भी हार जाती
दहकती देह से,
वैध होते जब संदेह में, तब
ठण्डे पानी में डूबा
तुम्हारा साड़ी का पल्लू
जैसे संजीवनी बूटी हो जाता,
कितना आराम पहुँचाता |
कभी मेरा कुह्म्लाया चेहरा
कभी मेरी देह को पोछती, तुम
अपनी ममता के आँचल से,
तुम्हारी आँखों से गिरतीं पानी की बूँदें,
देह के उच्च ताप को
निम्न कर देतीं
माँ ! तुम कैसे भाँप लेतीं |

मैं डूब जाता जब कभी
निराशा के भँवर में तैरता, डोलता,
उदासीनता की तरंगों में,
हतोत्साह से घिर जाता
थक कर बैठ जाता
किसी भटकते पथिक की भांति
पीड़ा के सूरज को छिपाने की
कोशिश करता, अपनी
मुस्कान के बादलों में,
फिर भी तुम्हारी निरक्षर आँखें
किसी वेद पाठी की तरह
पढ़ लिया करतीं,
मेरे हृदय में छिपी वेदना को
माँ ! तुम कैसे भाँप लेतीं |

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