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दीपोत्सव का बदलता स्वरूप

दीपोत्सव का बदलता स्वरूप, दीपोत्सव को एक उत्सव के रूप में मनाएं। उत्सव तो खुशियों की दस्तक देते हैं जिन्हें आधुनिकता के रंग में रंगकर बिगाड़ा जा रहा है। अपने आप को सभ्य समाज का बताने वालों को तो कम से कम खुद जागरूक होना चाहिए और दूसरों को चेताने की पहल करनी चाहिए। #ओम प्रकाश उनियाल, देहरादून

दीपोत्सव का त्योहार नजदीक ही है। मंहगाई चरम पर होने के बावजूद भी बाजारों में खरीददारों की भीड़ उमड़ी हुई है। आखिर क्यों न उमड़े? बाजार भी इस कदर सजे हुए हैं कि ग्राहक की नजर बरबस पहुंच ही जाती है। पटाखों, मिठाईयों, बर्तनों समेत अन्य सामान की चकाचौंध फैली हुई है। हर दुकान पर हर सामान पर छूट ही छूट की तख्तियां लटकी नजर आ रही हैं। संध्या होते ही बाजार रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाने लगे हैं।

दीपावली से पहले धन-तेरस, छोटी दिवाली और दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा व भैयादूज मनाया जाता है। यह त्योहार अपने साथ अन्य पर्वों को भी समेटे हुए है। बाजार तो सजे ही हैं भवनों पर भी रोशनी ही रोशनी ही नजर आने लगी है। आखिर दीपोत्सव रोशनी का पर्व जो ठहरा। बदलते समय के साथ-साथ घरों पर अब नाना प्रकार की विद्युत प्रकाश बिखेरने वाली लड़ियां, बल्व इत्यादि अपना कब्जा जमाए बैठे हैं।

पहले दीयों की पंक्ति घर की देहरी से लेकर मुंडेर तक सजायी जाती थी। असली दीपोत्सव तो वही होता था। अब जो कि नगण्य की स्थिति में नजर आता है। घरों में तरह-तरह के पकवान बनाए जाते थे। पास-पड़ौस में खील-बतासे, पकवानों व खिलौने मिठाई का आदान-प्रदान किया जाता था। आतिशबाजी भी इतनी धुंआधार नहीं की जाती थी जितनी अब देखने को मिलती है। आजकल प्रसाद के नाम पर बतीसा मिठाई के डिब्बे, या फिर सूखे मेवों के डिब्बे वह भी जिसके साथ ज्यादा ही घनिष्ठता हो या अन्य दिनों का हार-व्यवहार देखकर ही बांटने का निर्णय लिया जाता है।

जुआरियों-शराबियों के लिए तो यह दिन त्योहार के नाम पर और भी महत्वपूर्ण रहता है। भगवान राम के 14 साल बाद बनवास से वापस आने की खुशी में अयोध्यावासियों ने दीपोत्सव मनाया था उसी परंपरा को जीवंत रखने का प्रयास किया तो जाता है लेकिन एक-दूसरे की होड़ में। हर तरफ बनावटीपन का बिखरा रूप। जिस तरह से दीपावली में आतिशबाजी करने की आपसी होड़ दिखती है उसका विपरीत प्रभाव इंसानों पर किस कदर पड़ रहा है यह कोई नहीं सोच रहा है।

त्योहार मनाने का मतलब यह नहीं होता कि हमारा कोई सामाजिक दायित्व ही नहीं बनता। दीपावली के दिन आतिशबाजी से जिस तरह वायु-प्रदूषण फैलता है वह बहुत ही घातक होता है। एक तो पहले ही हर तरफ तरह-तरह के प्रदूषण की मार पड़ रही है दूसरी तरफ उसको और बढ़ावा दिया जा रहा है। इंसान से लेकर जीव-जंतु व पशु-पक्षी इसकी मार झेलते हैं। यह जानते-समझते हुए भी हम आंखें मूंद लेते हैं।

दीपोत्सव को एक उत्सव के रूप में मनाएं। उत्सव तो खुशियों की दस्तक देते हैं जिन्हें आधुनिकता के रंग में रंगकर बिगाड़ा जा रहा है। अपने आप को सभ्य समाज का बताने वालों को तो कम से कम खुद जागरूक होना चाहिए और दूसरों को चेताने की पहल करनी चाहिए। आइए, सुख-समृद्धि, धन-धान्य के देवी-देव माता लक्ष्मी व भगवान गणेश के समक्ष संकल्प का दीया जलाएं। खुशियों, उमंगों की आतिशबाजी छुड़ाएं।


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दीपोत्सव का बदलता स्वरूप, दीपोत्सव को एक उत्सव के रूप में मनाएं। उत्सव तो खुशियों की दस्तक देते हैं जिन्हें आधुनिकता के रंग में रंगकर बिगाड़ा जा रहा है। अपने आप को सभ्य समाज का बताने वालों को तो कम से कम खुद जागरूक होना चाहिए और दूसरों को चेताने की पहल करनी चाहिए। 

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