बदलाव प्रकृति का नियम है…
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गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
चाहे वह नेतृत्व हो,राजनीति हो या जीवन का कोई अन्य क्षेत्र बदलाव प्रकृति का नियम है।जहां बदलाव नहीं है वहां जड़ता आ जाती है।वहां के लोग अकर्मण्य हो जाते हैं।जिससे शासक निरंकुश हो जाता है।रक्षक भक्षक बनने लगते हैं।अर्थव्यवस्था हिचकोले खाने लगता है।कुव्यवस्थाओं का दौर शुरू हो जाता है।किसान,मजदूर,कर्मचारियों को सताया जाने लगता है।
राजकीय सम्पत्ति कौड़ी के भाव पूंजीपतियों के पास या तो बेच दिया जाता है या गिरवी रख दिया जाता है।तथाकथित बुद्धिजीवी पद,पैसा और पुरस्कार के लिए शासक वर्ग के पीछे पीछे चापलूसी करते फिरने लगते हैं।सर्वत्र बेकारी, बेरोजगारी, महंगाई का असर दिखाई देने लगता है। लेकिन शासन लोगों को भावनात्मक मुद्दों की ओर मोड़ने की कोशिश में जुड़ जाता है।जनता को जाति धर्म में बांटकर अपना उल्लू सीधा किया जाता है।
शिक्षा से गरीबों को दूर कर दिया जाता है। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त करने लगते हैं।आम लोग रोटी के लिए शासक की ओर ताकने लगते हैं।अमीर लोग और अमीर हो जाते हैं।पुरे राष्ट्र की सम्पत्ति कुछ लोगों के पास संग्रहीत होने लगता है।पूंजीपतियों के इशारों पर नियम कानून बनने लगते हैं।एक समय ऐसा भी आता है पूंजीपति शासक के दैनिक कार्यों में दखल देने लगते हैं और अंत में उन्हें अपने इशारों पर उठने बैठने तक को मजबूर कर देते हैं।
जब अत्याचार की इंतहा हो जाता है तो समाज में उथल-पुथल होता है।लोग अपनी अपनी हिस्सेदारी के लिए आवाज उठाने लगते हैं और फिर यही से क्रांति का सूत्रपात होता है।बदलाव के वाहक युवा पीढ़ी बनते हैं। राष्ट्र एक बार फिर से बदलाव और विकास के पथ पर अग्रसर हो जाता है।