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प्रेमचंद जी का सम्पूर्ण जीवन रहा संघर्षमय… प्रेमचंद्र जी वह शख्सियत थे जिन्होंने उपन्यास को तिलिस्म,जासूसी व काल्पनिक दुनिया से निकालकर यथार्थ की धरती पर चलना सिखाया।फिल्म निर्माता निर्देशक सत्यजीत राय ने इनकी दो कहानियों शतरंज के खिलाड़ी व सदगति पर यादगार फिल्में बनाई। एक गंभीर बीमारी के कारण 8 अक्टूबर 1936 को कलम के इस सिपाही का निधन हो गया। #सुनील कुमार, बहराइच, उत्तर प्रदेश
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कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 ई.को वाराणसी जिले के लमही नामक गांव में हुआ था।इनकी माता का नाम आनंदी देवी तथा पिता का नाम अजायब राय था। प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय था। इन्हें नवाब राय के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद जी जब मात्र सात वर्ष के थे तभी इनकी माता का देहांत हो गया। माता के देहांत के कुछ वर्षों बाद ही इनके पिता का भी निधन हो गया। इस प्रकार उनका जीवन बचपन से ही अत्यंत संघर्षमय रहा। हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद अपने आप में एक युग हैं, हिन्दी साहित्य की रीढ़ हैं।
प्रेमचंद जी की कालजयी रचनाएं अनंत काल तक लोगों को प्रेरित करती रहेंगी। प्रेमचंद जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। जीवन की तमाम विषमताओं के बावजूद भी इनका साहित्यानुराग तनिक भी कम न हुआ। प्रेमचंद सामाजिक कुरीतियों,अर्थहीन रूढ़ियों, परंपराओं और अंधविश्वासों के विरोधी थे।इन्होंने बाल-विवाह के विरोध में और विधवा विवाह के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद की।इनकी रचनाओं में समाज का कटु सत्य, नारी की दुर्दशा और एक साधारण व्यक्ति के जीवन का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। सामाजिक कुरीतियां,आम आदमी का संघर्ष, नारी की दशा आदि का सटीक चित्रण प्रेमचंद्र की रचनाओं में मिलता है।
प्रेमचंद जी अपनी कहानियों में सरल,सहज और मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करते थे।बंगाल के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने इनकी रचनाओं से प्रभावित होकर इन्हें उपन्यास सम्राट की उपाधि दी थी।अपनी शिक्षा-दीक्षा के उपरांत कई विद्यालयों में अध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं देने के बाद प्रेमचंद्र जी विद्यालय निरीक्षक के पद पर आसीन हुए। सरकारी सेवा के नियमों का पालन प्रेमचंद बड़ी निष्ठा से करते थे।जब वे विद्यालयों के निरीक्षण के लिए जाते थे तो अध्यापकों की किसी प्रकार की सेवा स्वीकार नहीं करते थे। वे अपने क्षेत्र के अध्यापकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय थे।
सन 1921 में गांधी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन का इनके मन पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा। प्रेमचंद ने अन्याय का विरोध करने का निश्चय किया और अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद साहित्य सेवा में रम कर ब्रिटिश सरकार के विरोध में जनता को जागरूक करने के लिए लेखन आरंभ कर दिया। कानपुर से प्रकाशित रफ्तार ए जमाना पत्रिका में प्रेमचंद्र जी नियमित लिखते थे। 1930 में इन्होंने हंस नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। जो आज भी दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। इसके अतिरिक्त मर्यादा, माधुरी, जागरण आदि कई अन्य पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
प्रेमचंद्र जी ने अट्ठारह उपन्यासों की रचना की जिनमें सेवा सदन,निर्मला,कर्मभूमि,गोदान, गबन, प्रतिज्ञा,रंगभूमि उल्लेखनीय हैं। मंगलसूत्र इनका अंतिम उपन्यास था जिसे असामयिक निधन के कारण वे पूरा नहीं कर पाए थे।इनके द्वारा रचित कहानियों में कफन,शतरंज के खिलाड़ी,पूस की रात, ईदगाह,बड़े घर की बेटी,पंच परमेश्वर उल्लेखनीय हैं। इनकी कहानियों का संग्रह मानसरोवर नाम से आठ भागों में प्रकाशित है। इनके निबंधों का संग्रह प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हैं।
प्रेमचंद्र जी वह शख्सियत थे जिन्होंने उपन्यास को तिलिस्म,जासूसी व काल्पनिक दुनिया से निकालकर यथार्थ की धरती पर चलना सिखाया।फिल्म निर्माता निर्देशक सत्यजीत राय ने इनकी दो कहानियों शतरंज के खिलाड़ी व सदगति पर यादगार फिल्में बनाई। एक गंभीर बीमारी के कारण 8 अक्टूबर 1936 को कलम के इस सिपाही का निधन हो गया। भारत के नव निर्माण व नवजागरण में प्रेमचंद्र जी की रचनाओं का अविस्मरणीय योगदान रहा है। प्रेमचंद जी की रचनाओं के माध्यम से हिंदी को न केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में एक विशेष पहचान मिली। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान के लिए हमारा समाज मुंशी प्रेमचंद्र जी का सदैव ऋणी रहेगा।
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