कविता : याद आता है

कविता : याद आता है, हमारे पास अब न वक्त है मां-बाप की खातिर लिया जो वक्त उनका था वो अक्सर याद आता है, आज महलों में एसी के बगल में हम भले बैठे खुला सा वो पुराना एक छप्पर याद आता है। अम्बेडकर नगर (उ०प्र०) से अजय एहसास की कलम से…
बड़ा ही खूबसूरत था वो मंजर याद आता है
कभी मां-बाप का भाई का तेवर याद आता है
कभी मां-बाप के संग साथ में मिलते बैठते थे
वो खाना साथ में खाना बराबर याद आता है।
नहीं थे सोने चांदी हीरे मेरे घर के खजाने में
लुटाते थे समर्पण का जो जेवर याद आता है
मेरे प्रश्नों के जो मुझको कभी उत्तर नहीं मिलते
मेरी मां जी का समझाया वो उत्तर याद आता है।
हमारे पास अब न वक्त है मां-बाप की खातिर लिया जो वक्त उनका था वो अक्सर याद आता है
आज महलों में एसी के बगल में हम भले बैठे खुला सा वो पुराना एक छप्पर याद आता है।
अदब तहजीब दी जिसने सिखाई संस्कृति जिसने
पिता रूपी मेरा ईश्वर पयंबर याद आता है
बहाना रोने का करना मुझे खुश करने की खातिर
मुझे बहलाने का अब वो आडंबर याद आता है
दिसंबर के महीने में छुपाती सीने में मुझको लिपटता जिस भी चद्दर में वो चद्दर याद आता है
नहीं था रुपया पैसा न सिक्कों की जमाते थी मगर फिर भी मोहब्बत का वो सागर याद आता है ।
कभी जो रात में तबीयत अचानक गड़बड़ा जाए
भयानक दृश्य होता था पहर वो याद आता है अकेले में मगन रहना
कभी यारों के संग रहना और साथी ढूंढने जाना वो घर-घर याद आता है
किए थे जो भी अच्छे काम सच्चे काम कच्चे काम
जब घर से दूर होते हैं वो बाहर याद आता है बड़ी खुद ही उठाएं हमको छोटी दे दिए थे वो
जो देखा घास हमने तो वो गट्ठर याद आता है
कभी जो जिद किया था मां से मीठी रोटी खाने को
मिलाई थी जो रोटी में वो शक्कर याद आता है
तब आंसू मां के थे निकले जो खूं देखें थे वो निकले
मैं सम्हला था जिसे खाकर वो ठोकर याद आता है।
नहीं थी इतनी तकनीकें तो भी रोशन हुए उत्सव
अभी शादी विवाहों का वो झालर याद आता है नहीं थी कागजी गिनती महीने ना ही
तारीखें जोड़ते उंगली से जो वो कैलेंडर याद आता है।
सिखाए फन जो बचपन में किया ‘एहसास’ भी उनको
कभी जो लड़खड़ाया वो सम्हल कर याद आता है।
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