कविता : मजदूरन की बेटी रधिया

बकरी-चराने,घास-काटने,पत्ता-बटोरने तथा रमुआ से झगड़ने तक की खबरें बड़ी दिलचस्पी से मुझे सुनाया करती प्रतिदिन स्कूल का रास्ता तय करने तक रधिया की उन्मुक्त हंसी और खुशियों में कहीं भी उसके आंतरिक दर्द का #डा उषाकिरण श्रीवास्तव, मुजफ्फरपुर, बिहार
छोटी सी रधिया
रोज आती थी अपनी मां के साथ
मैं भी चुपके घर वालों से आंखें बचाकर
निकल जाती थी रघिया के साथ।
बचपन की चंचलता में नहीं लगता कि
एक भी अन्न का दाना नहीं है रधिया के पेट में
बुढ़िया कबड्डी की होड़ में
जब उसके वस्त्र के चिथड़े रह जाते मेरे हाथ में
मेरा कोमल हृदय कांप कर रह जाता
पर इन सब बातों का कोई असर नहीं होता रधिया पर
स्कूल जाते समय लुक-छिपकर
प्रतिदिन हो लेती मेरे साथ रधिया
फिर क्या था ? रास्ते भर
बकरी-चराने,घास-काटने,पत्ता-बटोरने तथा
रमुआ से झगड़ने तक की खबरें
बड़ी दिलचस्पी से मुझे सुनाया करती प्रतिदिन
स्कूल का रास्ता तय करने तक
रधिया की उन्मुक्त हंसी और खुशियों में
कहीं भी उसके आंतरिक दर्द का
तनिक भी आभास नहीं होता
भूख से जब पेट में दर्द होता
क्षण भर के लिए रुक जाती रधिया
बहाना बनाकर लेकिन
मेरा भारी वस्ता अपने पीठ से नहीं उतारती
उसे विश्वास था कि
इस भारी वस्ते का बोझ मैं नहीं संभाल पाउंगी
बहुत बड़े अंतराल के बाद
मैं अपने गांव आई हूं
अब मेरी उम्र चालीस की है
मैंने देखा!
एक बूढ़ी महिला भारी बोझ लिए
बढती आ रही है
मेरी याददाश्त कुछ सुगबुगाई, माथे पर बल दिया
धुंधली सी आकृति मेरे अंतर्मन में समाई
कलेजा कांप गया
अरे तू रधिया है न !
तू तो मुझसे दो ही वर्ष छोटी थी न ?