महान गणितज्ञ आर्यभट्ट : शून्य के प्रणेता और खगोल विज्ञान के ज्ञाता

जहानाबाद। शून्य के प्रणेता आर्यभट्ट के जन्म दिवस पर जीवनधारा नमामी गंगे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं निर्माण भारती ( हिंदी पाक्षिक ) के प्रबंध संपादक साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक ने कहा कि महान गणितज्ञ व शून्य के प्रणेता आयभट्ट थे । भारत के महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट, जिनका कर्म गुप्त काल (भारत का स्वर्णिम युग) में रहा, ने न केवल वैज्ञानिक उन्नति में अभूतपूर्व योगदान दिया बल्कि अपने ग्रंथ ‘आर्यभट्टीय’ की रचना कर भारत को विश्व में गौरवान्वित किया।माना जाता है कि आर्यभट्ट का जन्म 13 अप्रैल 476 ईस्वी को बिहार राज्य की तत्कालीन राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) के निकट कुसुमपुर में हुआ था।
हालाँकि, उनके माता-पिता और वंश परिचय के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनकी मृत्यु 550 ईस्वी में मानी जाती है। उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के सम्मान में, प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500वीं जयंती मनाई थी। आर्यभट्ट के कार्यों की जानकारी मुख्य रूप से उनके द्वारा रचित ग्रंथों से मिलती है, जिनमें ‘आर्यभट्टीय’, ‘दशगीतिका’, ‘तंत्र’ और ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ प्रमुख हैं। विद्वानों में ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ को लेकर मतभेद हैं, लेकिन माना जाता है कि सातवीं शताब्दी में इसका व्यापक उपयोग होता था। दुर्भाग्यवश, इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के केवल 34 श्लोक ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। ‘आर्यभट्टीय’ उनके द्वारा किए गए कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण प्रदान करता है।
माना जाता है कि यह नाम उन्हें स्वयं नहीं दिया गया था, बल्कि बाद के टिप्पणीकारों ने इसका प्रयोग किया। आर्यभट्ट के शिष्य भास्कर प्रथम ने भी अपने लेखों में इसका उल्लेख किया है। इस ग्रंथ को कभी-कभी ‘आर्य-शत-अष्ट’ (अर्थात् आर्यभट्ट के 108 छंद) के नाम से भी जाना जाता है। ‘आर्यभट्टीय’ में वर्गमूल, घनमूल, समांतर श्रेणी और विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। वास्तव में, यह ग्रंथ गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसमें अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमें सतत भिन्न, द्विघात समीकरण, घात श्रृंखला के योग और ज्याओं की एक तालिका भी सम्मिलित है। ‘आर्यभट्टीय’ कुल 108 छंदों में विभाजित है, साथ ही 13 परिचयात्मक छंद भी हैं।
इसे चार पदों या अध्यायों में बाँटा गया है: गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।’आर्य-सिद्धांत’ खगोलीय गणनाओं पर आधारित एक कार्य था। जैसा कि ऊपर बताया गया है, यह ग्रंथ अब लुप्त हो चुका है, लेकिन इसकी जानकारी हमें आर्यभट्ट के समकालीन वराहमिहिर और बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों जैसे ब्रह्मगुप्त और भास्कर प्रथम के कार्यों और लेखों से मिलती है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, यह कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित था और इसमें सूर्योदय की अपेक्षा मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया था। इस ग्रंथ में कई खगोलीय उपकरणों का भी वर्णन है, जिनमें शंकु-यंत्र, छाया-यंत्र, संभवतः कर्ण मापी उपकरण, धनुर्-यंत्र/चक्र-यंत्र, एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यंत्र, छत्र-यंत्र और जल घड़ियाँ मुख्य हैं।
आर्यभट्ट द्वारा कृत एक तीसरा ग्रंथ भी उपलब्ध है, हालांकि यह मूल रूप में मौजूद नहीं है, बल्कि अरबी अनुवाद के रूप में अल-कस्तत्व में है – अल न्त्फ़ या अल नन्त़्। यह ग्रंथ आर्यभट्ट के ग्रंथ का अनुवाद होने का दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका वास्तविक संस्कृत नाम अज्ञात है। इसका उल्लेख फारसी विद्वान और इतिहासकार अबूरेहान अल-बिरूनी द्वारा किया गया है। आर्यभट्ट का गणित और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने न केवल शून्य की अवधारणा को स्थापित किया बल्कि ज्योतिष को विज्ञान के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके कार्य आने वाली पीढ़ियों के वैज्ञानिकों और गणितज्ञों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहें ।