
शिवम यादव अंतापुरिया
प्रेम…
यह कोई पारलौकिक सत् नहीं,
बल्कि एक मनोग्रस्त व्यामोह है,
जहाँ बुद्धि संज्ञाहीन हो जाती है
और चित्त, सहज विवेकविहीनता की चपेट में।
जिसे तुम ‘प्रेम’ कहकर
श्रृंगारित करते हो,
वह तो मात्र अंतःप्रवृत्त संवेगों का उच्छ्वास है,
जो मस्तिष्क की रसायनिक प्रमत्तता में
तर्कशून्यता का उत्सव रचता है।
क्या यह प्रेम है?
या अधूरी आत्माओं का आपसी परजीवन?
जो क्षणिक आकर्षण को
अनंत अनुरक्ति समझ बैठते हैं,
वे कभी प्रेमशास्त्र के पाठक नहीं,
बल्कि आत्मप्रवंचना के शिकार होते हैं।
प्रेम में जो ‘त्याग’ कहा जाता है,
वह वस्तुतः स्वत्व-निग्रह का कुपरिणाम है।
जो ‘समर्पण’ बताया जाता है,
वह केवल स्वाभिमान का संहार है,
और जो ‘एकत्व’ की बात करते हैं,
वे अपनी अस्मिता को किसी और के अधीन कर
सत्ता-हीन होने का अभ्यास करते हैं।
प्रेम, उस रूप में जिसमें समाज ने उसे प्रतिष्ठित किया
एक सांस्कृतिक मिथ्या,
एक काव्यात्मक कुहासा ,
जिसमें हृदय भावावेश के भंवर में डूबता है,
और विवेक, रसप्रपंच की वीथियों में भटकता है।
‘मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूँ’
यह कथन नहीं, अस्तित्वगत दरिद्रता है।
जो आत्मस्वीकृति की बजाय
परावलंबन में सुख खोजता है,
वह प्रेम नहीं कर रहा,
बल्कि असुरक्षा की आत्महत्या कर रहा है।
सच कहूँ तो
प्रेम अब केवल प्रतीकवाद का एक सौदागर है,
जहाँ गुलाब, चॉकलेट, और वचन
संवेदनाओं के बाज़ार में
मूल्य तय करते हैं, आत्मा का नहीं
ब्रांडेड वफ़ाओं का!
अतः, मैं प्रेम का विरोधी नहीं —
मैं उसके आडंबरिक आवरण का
निष्कलुष आलोचक हूँ।