उत्तराखण्ड समाचार

स्वच्छ सर्वेक्षण-2023: फूल गया दम, बढ़े सिर्फ एक कदम, देश के शीर्ष-50 स्वच्छ शहरों में दून को नहीं मिली जगह

नगर निगम के पिछले कार्यकाल में पूरे पांच साल पर्यावरण मित्रों का खेल चला। निगम ऐसे पर्यावरणमित्रों के दम पर सफाई का दावा करता रहा जिनके केवल नाम ही कागज पर दर्ज मिल रहे हैं। ये सारे कर्मचारी निवर्तमान पार्षदों ने नियुक्त किए और उन्हीं के अनुमोदन पर इन्हें लगभग 15 रुपये हर माह भुगतान होता रहा। 

देहरादून। देश के शीर्ष-50 स्वच्छ शहरों में अपना नाम शामिल करने का दावा कर रहा देहरादून नगर निगम स्वच्छता के कई मानकों पर मात खा गया। यही वजह है कि शीर्ष-50 तक पहुंचने में निगम का दम फूल गया और अपनी पिछली रैंकिंग में सिर्फ एक अंक का सुधार कर पाया। निगम ने स्वच्छता सर्वेक्षण-2023 में कूड़ा पृथकीकरण, कूड़ा प्रसंस्करण में काफी कम अंक अर्जित किए। वहीं, नाले-नालियों की सफाई में एक भी अंक नहीं मिला यानी शून्य अंक हैं। धरातल पर ऐसे प्रदर्शनों के बावजूद नगर निगम ने खुद को शीर्ष-50 शहरों में शुमार करने के लिए नारे लगाकर प्रचार किया।

दावे किए कि इस बार के स्वच्छता सर्वेक्षण में निश्चित तौर पर देश में दून का नाम रोशन करेंगे। लेकिन निगम का यह दावा स्वच्छता सर्वेक्षण के नतीजे घोषित होते ही हवा हो गया। शीर्ष-50 तो दूर पिछली स्वच्छता सर्वेक्षण के मुकाबले भी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाया। 2018 से 2022 तक की स्वच्छता रैंकिंग की बात करें तो निगम ने अपनी रैंकिंग में लंबी छलांंग लगाई थी। वर्ष 2018 में देहरादून नगर निगम 258वें स्थान पर था। 2019 में निगम काफी पिछड़ गया और रैंक 384वीं रही थी। लेकिन, उसके बाद निगम ने बेहतर प्रदर्शन किया और 2022 में 69वीं रैंक तक पहुंचा। अब इस बार दून केवल एक रैंक का सुधार कर पाया। इसके पीछे नगर निगम की लचर कार्यप्रणाली पूरी तरह से जिम्मेदार है।

नगर निगम अपने क्षेत्र से एक वित्तीय वर्ष में 30-40 करोड़ रुपये का हाउस टैक्स वसूलता है। लगभग 10 करोड़ रुपये होर्डिंग के टैक्स मिलते हैं। इसके अलावा, निगम का खुद का बजट बीते कुछ वर्षों से 200 करोड़ रुपये के आसपास रहता है। इसके बावजूद शहर के अंदर और बाजार में सफाई 2022 के मुकाबले नहीं हुई। पूरे साल निगम के डोर-टु-डोर कूड़ा उठान पर सवाल उठते रहे। लेकिन, निगम इस व्यवस्था को ढर्रे पर नहीं ला पाया। निगम के 100 वार्डों में तीन कंपनियां कूड़ा उठान के कार्य में लगी हुई हैं और इनकी निगरानी के लिए भी दो अलग कंपनियां हैं। निगरानी कर रहीं कंपनियों को भी हर माह 12 से 13 लाख का भुगतान किया जा रहा है।

बात सूखा और गीला कूड़ा अलग करने की बात हो तो निगम इसमें भी फिसड्डी रहा। निगम की ओर से अभियान चलाकर इस दिशा में कदम तो बढ़ाए, लेकिन निगम अधिकारियों की लापरवाही की वजह से यह अभियान धरातल पर नहीं उतर पाया। आज भी स्थिति है कि 80 प्रतिशत लोग सूखा-गीला कूड़ा साथ ही देते हैं। शहर के शौचालयों की सफाई व्यवस्था के मानक पर भी निगम खरा नहीं उतर पाया। हालांकि, पिछले साल की अपेक्षा इस बार शौचालयों की सफाई में निगम को अच्छे अंक मिले हैं, लेकिन सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति बदतर है।

नगर निगम के पिछले कार्यकाल में पूरे पांच साल पर्यावरण मित्रों का खेल चला। निगम ऐसे पर्यावरणमित्रों के दम पर सफाई का दावा करता रहा जिनके केवल नाम ही कागज पर दर्ज मिल रहे हैं। ये सारे कर्मचारी निवर्तमान पार्षदों ने नियुक्त किए और उन्हीं के अनुमोदन पर इन्हें लगभग 15 रुपये हर माह भुगतान होता रहा। जब बोर्ड का कार्यकाल खत्म हुआ तो निगम की बागडोर प्रशासक सोनिका के हाथों आ गई। उन्होंने सफाई की शिकायतों पर सर्वे कराने का आदेश किया। सर्वे में पाया गया कि राज्य के बाहरी लोगों के नाम भी पर्यावरणमित्रों के तौर पर दर्ज हैं। हर वार्ड में चार-पांच कर्मचारी अनुपस्थित हैं या उनकी जगह दूसरा व्यक्ति काम करता पाया जा रहा है। ऐसे में स्वच्छता रैंकिंग में सुधार की बात करना बेमानी है।


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