कविता : रविवार
कविता : रविवार… नदी के पास आकर गुनगुनाते बहारों का मौसम खत्म नहीं होता जिंदगी में प्यार के बीज हर साल बादल आकर बोलता हरे भरे पौधे उग आते शीत के सन्नाटे में पहाड़ों पर शहर में हम सर्दी की धूप में तुम्हें बाग बगीचों में प्यार के गुमनाम खत भेजकर बुलाते… #राजीव कुमार झा
यादों में तुमसे
दोस्ती के दिन
फूलों की मुस्कान लुटाते
तब हम बमुश्किल
कभी कभार किसी दिन
घर के आसपास
तुमसे गलियों में
आते – जाते मिल पाते
परचून की दुकान पर
माचिस साबुन सर्फ
अगरबत्ती के पैकेट
पैकेट खरीदकर
वापस घर लौटते
तुम अक्सर सुबह
धूप को निहारती रहती
रविवार को नहाने से
पहले
पेड़ पौधों चिड़ियों की
तस्वीरें बनाया करती
शाम में सखियों के संग
खेलती – कूदती
अंधेरे में दरवाजे पर
दीया जलाती
यादों के दरख्त पर
शरद की मुस्कान से
पहले
आकाश में समुद्र की
तरफ लौटते बादल
तुम्हें ग्रीष्मावकाश में
सागर तट पर बुलाते
यहां हम दोस्तों के
साथ
क्रिकेट के मैदान में
तब चौके छक्के लगाते
तुम्हारी मेहरबानी से
अक्सर
शहर से दूर प्यार के
गीत
शाम की ख़ामोश
संस्मरण : यादों के आईने में कलाकार, हैबिटेट सेंटर में शारदा सिन्हा का गायन
नदी के पास
आकर गुनगुनाते
बहारों का मौसम
खत्म नहीं होता
जिंदगी में प्यार के
बीज
हर साल बादल आकर
बोलता
हरे भरे पौधे उग आते
शीत के सन्नाटे में
पहाड़ों पर शहर में
हम सर्दी की धूप में
तुम्हें बाग बगीचों में
प्यार के गुमनाम खत
भेजकर बुलाते