महाकुंभ और प्रयागराज
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सत्येन्द्र कुमार पाठक
लोमश जी कहने लगे कि पूर्व काल में अवंती देश में वीरसैन नाम का राजा था. उसने नर्मदा के किनारे राजसूय यज्ञ किया और अश्वमेघ यज्ञ भी किए जिनके खम्भे सोने के बनाए गए. ब्राह्मणों को अन्न का बहुत-सा दान किया और बहुत-सी गाय, सुंदर वस्त्र और सोने के आभूषण दान में दिए. वह देवताओं का भक्त और दान करने वाला था. भद्रक नाम का एक ब्राह्मण जो अत्यंत मूर्ख, कुलहीन, कृषि कार्य करने वाला, दुराचारी तथा अधर्मी था, वह भाई-बंधुओं का त्यागा हुआ इधर-उधर घूमता हुआ देव यात्रियों के साथ प्रयाग में आया और माघ में उनके साथ तीन दिन तक स्नान किया. वह तीन दिन में ही निष्पाप हो गया फिर वह अपने घर चला गया।
वह ब्राह्मण और राजा दोनों एक ही दिन मृत्यु को प्राप्त हुए. मैंने इन दोनों को बराबर इंद्रलोक में देखा. तेज, रूप, बल, स्त्री, वस्त्र और आभूषणों में दोनों समान थे. ऎसा देखकर उसके माहात्म्य को क्या कहा जाए. राजसूय यज्ञ करने वाला स्वर्ग का सुख भोगकर फिर भी जन्म लेता है परंतु संगम में स्नान करने वाला जन्म-मरण से रहित हो जाता है. गंगा और यमुना के संगम की हवा के स्पर्श से ही बहुत-से दुख नष्ट हो जाते हैं. अधिक क्या कहें और किसी भी तीर्थ में किए गए पाप माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से नष्ट हो जाते हैं. मैं पिशाच मोचन नाम का एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ. इस इतिहास को यह कन्याएँ और तुम्हारा पुत्र सुने !, उससे इनको स्मृति प्राप्त होगी। पुराने समय में देवद्युति नाम का बड़ा गंभीर और वेदों का पारंगत एक वैष्णव ब्राह्मण था. उसने पिशाच को निर्मुक्त किया था. वेदनिधि कहने लगे कि वह कहाँ का रहने वाला, किसका पुत्र, किस पिशाच को उसने निर्मुक्त किया.
आप विस्तारपूर्वक यह सब कथा सुनाइए. लोमश ऋषि ने कहा – किल्पज्ञ से निकली हुई सुंदर सरस्वती के किनारे पर उसका स्थान था. जंगल के बीच में पुण्य जल वाली सरस्वती बहती थी. वन में अनेक प्रकार के पशु भी विचरते थे. उस ब्राह्मण के श्राप के भय से पवन भी बहुत सुंदर चलती थी और वन चैत्र रथ के समान था. उस जगह धर्मात्मा देवद्युति रहता था. उसके पिता का नाम सुमित्र था और वह लक्ष्मी के वरदान से उत्पन्न हुआ था। वह सदैव आत्मा को स्थिर रखता, गर्मी में अपने नेत्र सूर्य की तरफ रखता, वर्षा में खुली जगह पर तपस्या करता. हेमंत ऋतु में सारस्वत सरोवर में बैठता और त्रिकाल संध्या करता. जितेन्द्रिय और सत्यवादी भी था. अपने आप गिरे हुए फल और पत्तियों का भोजन करता था. उसका शरीर सूखकर हड्डियाँ मात्र रह गई थीं.
इस प्रकार उसको तप करते हुए वहाँ पर हजार वर्ष बीत गए. तप के प्रभाव से उसका शरीर अग्नि के समान प्रज्ज्वलित था. विष्णु की प्रसन्नता से ही वह सब कर्म करता. दधीचि ऋषि के वरदान से ही वह श्रेष्ठ वैष्णव हुआ था. एक समय उस ब्राह्मण ने वैशाख महीने की एकादशी को हरि की पूजा कर उनकी सुंदर स्तुति तथा विनती करी. उसकी विनती सुनकर भगवान उसी समय गरुड़ पर चढ़कर उसके पास आए. चतुर्भुज विशाल नेत्र, मेघ जैसा स्वरुप. भगवान को स्पष्ट देखकर प्रसन्नता के मारे उसकी आँखों में आँसू भर आए और कृतकृत्य होकर उसने भगवान को प्रणाम किया।उसने अपने शरीर को भी याद न रखा और भगवान के ध्यान में लीन हो गया तब भगवान ने कहा कि हे देवद्युति मैं जानता हूँ कि तुम मेरे परम भक्त हो. मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो.
इस प्रकार भगवान के वचन सुनकर प्रेम के मारे लड़खड़ाती हुई वाणी में कहने लगा कि हे देवाधिदेव! अपनी माया से शरीर धारण करने वाले आपका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है. अब आपका दर्शन भी हो गया मुझको और क्या चाहिए. मैं सदैव आपकी भक्ति में लगा रहूँ. भगवान उसके वचन सुनकर कहने लगे कि ऎसा ही होगा. तुम्हारे तप में कोई बाधा नहीं पड़ेगी. जो मनुष्य तुम्हारे कहे गए स्तोत्र को पढ़ेगा उसकी मुझमें अचल भक्ति होगी, उसके धर्म कार्य सांगोपांग होगें और उसकी ज्ञान में परम निष्ठा होगी। माघ में प्रयाग में स्नान करने से पिशाच मुक्ति उल्लेख मिलता है। अवंती देश के राजा वीरसैन ने नर्मदा के किनारे राजसूय और अश्वमेघ यज्ञ किए। उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत दान दिया। भद्रक नाम का एक मूर्ख ब्राह्मण, जो अपने भाई-बंधुओं द्वारा त्याग दिया गया था, देव यात्रियों के साथ प्रयाग आया और माघ में तीन दिन स्नान करके निष्पाप हो गया।
राजा वीरसैन और वह ब्राह्मण एक ही दिन मरे और दोनों इंद्रलोक में समान रूप से प्रतिष्ठित हुए। राजसूय यज्ञ करने वाला स्वर्ग का सुख भोगकर फिर भी जन्म लेता है, परंतु संगम में स्नान करने वाला जन्म-मरण से रहित हो जाता है। गंगा और यमुना के संगम की हवा के स्पर्श से ही बहुत-से दुख नष्ट हो जाते हैं। किसी भी तीर्थ में किए गए पाप माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से नष्ट हो जाते हैं। पिशाच मोचन – लोमश ऋषि ने पिशाच मोचन के संबंध में उल्लेख किया कि देवद्युति वैष्णव ब्राह्मण ने पिशाच को निर्मुक्त किया था। वेदनिधि ने देवद्युति के बारे में विस्तार से वर्णन करते हुए सतयुग के लोमश ऋषि ने बताया कि किल्पज्ञ से निकली हुई सुंदर सरस्वती के किनारे पर देवद्युति का स्थान था। वह धर्मात्मा, वेदों का ज्ञाता और विष्णु भक्त था। उसके पिता का नाम सुमित्र था।
वह सदैव आत्मा को स्थिर रखता, गर्मी में अपने नेत्र सूर्य की तरफ रखता, वर्षा में खुली जगह पर तपस्या करता, हेमंत ऋतु में सारस्वत सरोवर में बैठता और त्रिकाल संध्या करता था। हजार वर्ष तक तपस्या करने के बाद, वैशाख महीने की एकादशी को हरि की पूजा करके उसने उनकी स्तुति की। भगवान विष्णु गरुड़ पर चढ़कर उसके पास आए। देवद्युति ने भगवान को देखकर प्रणाम किया और कहा कि हे देवाधिदेव! आपका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है। अब आपका दर्शन हो गया, मुझे और क्या चाहिए। मैं सदैव आपकी भक्ति में लगा रहूं। भगवान ने कहा कि ऎसा ही होगा। तुम्हारे तप में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। जो मनुष्य तुम्हारे कहे गए स्तोत्र को पढ़ेगा उसकी मुझमें अचल भक्ति होगी, उसके धर्म कार्य सांगोपांग होगें और उसकी ज्ञान में परम निष्ठा होग। माघ मास में प्रयाग में स्नान के महत्व और देवद्युति द्वारा पिशाच मुक्ति का उल्लेखनीय है।
प्रयागराज स्थित सतयुग में कल्पज्ञ से प्रवाहित होने वाली नदी सरस्वती, उतराखण्ड के यमुनोत्री से निकली यमुना नदी और गंगोत्री से निकली गंगा नंदी का संगम हुई थी। प्रयागराज का गंगा यमुना सरस्वती नदियों का संगम को त्रिवेणी संगम, महासंगम पर माघी कुम्भ, अर्द्ध कुंभ,कुंभ और महाकुंभ कहा जाता है। महाकुंभ में स्नान ध्यान लगाने पर प्राणियों को चतुर्दिक विकास धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। अमृत स्नान माघ मास की अमावस्या, पंचमी, पूर्णिमा और फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी महाकुंभ का महान जलोत्सव है। लोमश ऋषि – लोमश ऋषि लंबी आयु, तपस्या और ज्ञान के लिए जाने जाते हैं। लोमश ऋषि का नाम उनके शरीर पर घने और लंबे बालों के कारण पड़ा। “लोमश” शब्द का अर्थ है “घने बालों वाला”। लंबी आयु: लोमश ऋषि को चिरंजीवी और अमर हैं। उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी, जिससे उन्हें यह वरदान मिला कि हर कल्प के अंत में उनके शरीर का केवल एक बाल गिरेगा। इस प्रकार, उनकी आयु बहुत लंबी है।
ज्ञान और तपस्या: लोमश ऋषि वेदों, पुराणों और धर्म शास्त्रों के ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी लंबी आयु का उपयोग तपस्या, ध्यान और धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में किया। लोमश ऋषि का उल्लेख महाभारत, रामायण और कई पुराणों में मिलता है। उन्होंने धार्मिक और आध्यात्मिक उपदेश दिए हैं।: लोमश ऋषि ने पांडवों को उनके वनवास के दौरान कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए थे। उन्होंने राजा दशरथ को उनके पुत्रों के भविष्य के बारे में भविष्यवाणी की थी। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र लोमश ऋषि थे। उनके शरीर पर घने और लंबे बालों के कारण उनका नाम लोमश पड़ा।लोमश ऋषि अपनी लंबी आयु का अधिकांश समय तपस्या, ध्यान और धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में बिताया। उन्होंने विभिन्न तीर्थस्थलों और वनों में भ्रमण किया और अपने ज्ञान से लोगों को लाभान्वित किया। कुछ कथाओं के अनुसार, उन्होंने नैमिषारण्य, प्रयाग और बदरिकाश्रम जैसे स्थानों पर तपस्या की थी।
उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी, जिससे उन्हें यह वरदान मिला कि हर कल्प के अंत में उनके शरीर का केवल एक बाल गिरेगा। इस प्रकार, उनकी आयु बहुत लंबी है।।ज्ञान और तपस्या: लोमश ऋषि वेदों, पुराणों और धर्म शास्त्रों के ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी लंबी आयु का उपयोग तपस्या, ध्यान और धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में किया। लोमश ऋषि का उल्लेख महाभारत, रामायण और कई पुराणों में मिलता है। उन्होंने कई महत्वपूर्ण धार्मिक और आध्यात्मिक उपदेश दिए हैं।उन्होंने पांडवों को उनके वनवास के दौरान कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए थे। उन्होंने राजा दशरथ को उनके पुत्रों के भविष्य के बारे में भविष्यवाणी की थी। लोमश ऋषि को हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण और सम्मानित ऋषि के रूप में देखा जाता है। वे अपनी लंबी आयु, ज्ञान और तपस्या के लिए प्रसिद्ध हैं।