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पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा अमेरिका

वीरेंद्र बहादुर सिंह

जिस दिन 30 अक्टूबर को भारतीय मूल के 37 वर्षीय अमेरिकी पराग अग्रवाल की माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के चीफ एक्जीक्युटिव आफिसर (सीईओ) नियुक्त होने का समाचार आया, उस दिन लोकसभा में केंद्र सरकार ने जानकारी दी कि पिछले 5 सालों में 6 लाख से अधिक भारतीयों ने अपनी नागरिकता छोड़ दी है।

विदेश मंत्रालय ने एक लिखित जवाब में कहा है कि सितंबर, 2021 में एक लाख से अधिक भारतीयों ने भारत की नागरिकता छोड़ दी थी। मंत्रालय ने कहा कि 1,33,83,718 भारतीय विदेश जा कर बस गए हैं। एक ही दिन का यह योगानुयोग हो सकता है, परंतु दोनों समाचारों में एक बात सामान्य है कि जिनमें क्षमता है, वे भारतवासी उज्ज्वल भविष्य के लिए विदेश पसंद करते हैं और पराग अग्रवाल ऐसे भारतीयों की सोच का गवाह हैं।

पराग की नियुक्ति की घोषणा हुई, उसके कुछ ही घंटों में एक कार्टून वायरल हुआ, जिसमें एक मध्यमवर्गीय घर की महिला एक हाथ में चप्पल ले कर दूसरे हाथ से अपने बेरोजगार बेटे के बाल पकड़ कर गरज रही थी, “उधर अग्रवाल का बेटा ट्विटर सीईओ बन गया और तू बस डेली ट्विटर पर बायकाट दिस दैट वाला ट्रेंड चलाता है।” भारत में हजारों-लाखों बेरोजगार लोग सोशल मीडिया पर नफरत की राजनीति में व्यस्त हैं। ऐसे में तमाम भारतीय चुपचाप विदेश जा कर अपना भविष्य संवार रहे हैं। यही कड़वी वास्तविकता इस कार्टून में थी।

बेंगलुरु स्थित फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी स्टार्ट-अप कंपनी किड के सीईओ कुणाल शाह ने पराग वाले समाचार पर ट्वीट करते हुए लिखा था, “गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अडोब, आईबीएम, पालो, अल्टो नेटवर्क के बाद अब ट्विटर का संचालन भारतीय मूल के लोगों के हाथ में होगा। हम एक ओर वैश्विक टेक कंपनियों में किस तरह भारतीय सीईओ बन रहे हैं, इसकी खुशी मना रहे हैं तो दूसरी ओर एक भारतीय के रूप में हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमारे योग्य लोग किस लिए देश छोड़ कर जा रहे हैं और ये लोग वहाँ रहना पसंद करेंगें। अगर देश की उत्तम प्रतिभा बाहर चली जाएगी, तो हमारा देश कैसे उन्नति करेगा।

पिछले काफी समय से भारतीय मूल के लोग वैश्विक कंपनियों में सीईओ बन रहे हैं। इस संदर्भ में महेन्द्रा एंड महेन्द्रा के चैयरमैन आनंद महेन्द्रा ने मजाक में यह बात कही थी, “हमें इस एक महामारी पर गर्व है, जो भारत से शुरू हुई है, इसे इंडियन सीईओ वायरस कहते हैं, इसके लिए कोई वैक्सीन नहीं बन सकी है।”

आनंद महेन्द्रा ने भले ही मजाक में इसे महामारी कहा है, पर भारत की आजादी के पहले से ही उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए लंदन जाने का चलन था और आजादी के बाद तमाम प्रतिभाशाली डाक्टर और इंजीनियर बढ़िया जीवन और कैरियर की तलाश में लंदन, यूरोप और उसके बाद अमेरिका उड़ने लगे थे। इसके लिए ब्रेन ड्रेन शब्द था। यह जैसे एक बीमारी थी। आज भी एक उच्च-मध्यमवर्ग के लड़के-लड़कियां लंदन, न्यूयार्क, कनाडा, आस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड जाने का सपना देखते रहते हैं।

‘सारे जहां से अच्छा हिंदोसता हमारा’ साल में एक-दो किसी समारोह में बोल देने से देशभक्ति का सार्वजनिक केथार्सिस हो जाए, बाकी ज्यादातर लोग पहले ही फ्लाइट पकड़ कर न्यूयार्क जाने की फिराक में रहते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि वहां उनकी मेहनत और योग्यता की कद्र ज्यादा होती है। यह फिराक साधारण लोगों की ही है, ऐसा नहीं है। पढ़े-लिखे और साधन-संपन्न भारतीय भी बेहतर भविष्य के लिए परदेसी बनने को तत्पर हैं।

हेन्ले एंड पार्टनर्स नामकी वैश्विक इन्वेस्टमेंट फर्म का अभी जल्दी किया गया एक सर्वे बताता है कि पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में हाई-नेटवर्थ वाला भारतीय दूसरे देश में घर बसा रहा है। ये लोग इन्वेस्टमेंट के नाम पर विदेश में घर खरीद रहे हैं। सर्वे कहता है कि 2020 में कोविड की महामारी में सीमा बंद थी, उस समय भी उनके पास विदेश में इन्वेस्टमेंट के लिए पूछताछ में 62 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी।

इसी सर्वे के हिस्से के रूप में प्रसिद्ध हुए ग्लोबल वेल्थ माइग्रेशन की रिपोर्ट के डाटा के अनुसार, 2019 में भारत का हाई-नेटवर्थ व्यक्तियों में से 7 प्रतिशत यानी कि 7 हजार लोग अधिक उत्तम जीवन की खोज में देश छोड़ गए थे। उसी साल चीन से 16 हजार और रशिया से 5,500 अमीर विदेश में स्थाई हो गए थे।

आजादी के बाद काफी समय तक विदेश जाना गर्व की निशानी थी। ज्यादातर बच्चे और पैरेंट्स का यह सपना होता था। क्योंकि भारत में उतना अच्छा जीवन और कैरियर नहीं मिल सकता था, जो दूसरा देश दे सकता था। परंतु 1991 के उदारीकरण के बाद हमने दुनिया में जो श्रेष्ठ है, उसका स्वागत किया है। फिर भी ब्रेन ड्रेन में रुकावट नहीं आई। यह एक सोचने वाला मुद्दा है।

सार्वजनिक रूप से कोई स्वीकार करे या न करे, घर की चारदीवारी में सभी एकदूसरे से कहते हैं कि ‘इससे अच्छा तो फाॅरेन ही चले गए होते।’ हमारे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक वातावरण की यह करुण वास्तविकता है कि भारत के एक सामान्य नागरिक से ले कर एक अमीर बिजनेसमैन को विदेश की भूमि पर जो सुख-सुविधा दिखाई देती है, वह भारत में नजर नहीं आती।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, 1999 में अमेरिका में स्थाई हुए भारतीयों की संख्या 1,37,230 थी, जो 2015 में 4,45,281 हो गई थी। मतलब उसमें 225 गुना की बढ़ोत्तरी हुई थी। 2009 के बाद अमेरिका जाने वालों में तेजी आई है। अमेरिका की टेक राजधानी सिलिकोन में तो एक जोक भी है कि वहां सब से ज़्यादा हिंदी और तेलुगु भाषा बोली जाती है।

भारत की प्रतिभाएं नाम और दाम कमा रही हैं। इस बात को ले कर भले ही हम अपना काॅलर ऊंचा करें, पर भारत उनकी कीमत नहीं कर सकता, यह भी सिक्के का दूसरा पहलू है। पराग अग्रवाल की नियुक्ति ट्विटर में हुई तो ऐक दूसरा जोक भी वायरल हुआ था, ‘उसमें आईबीएम के चेयरमैन-सीईओ अरविंद कृष्ना, माइक्रोसॉफ्ट के चेयरमैन-सीईओ सत्य नडेला और गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई की तस्वीरों के साथ लिखा था- पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा अमेरिका।

(मूल यह भारत सरकार का सर्वशिक्षा अभियान का सूत्र था कि- पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया।)


¤  प्रकाशन परिचय  ¤

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वीरेंद्र बहादुर सिंह

लेखक एवं कवि

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देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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देवभूमि समाचार में इंटरनेट के माध्यम से पत्रकार और लेखकों की लेखनी को समाचार के रूप में जनता के सामने प्रकाशित एवं प्रसारित किया जा रहा है।

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