प्रेम की रेत में मौत भी नहाती है…

श्री भारमल गर्ग “विलक्षण”, सांचौर (राजस्थान)
सत्यपुर की सीमा पर फैला मरुस्थल अनंत की तरह था। रेत के टीलों पर सूरज की किरणें ऐसे नाचतीं, मानो अग्निदेव यज्ञ की लपटें बिखेर रहे हों। इसी रेगिस्तान के किनारे बसा था सत्यपुर—एक ऐसा नगर जहाँ के लोग प्रेम को भोग समझते थे, और मृत्यु को अंत। नगर की संकरी गलियों में एक युवक भटकता रहता। नाम था सुदर्शन। उसकी आँखों में तपस्वियों-सी गहराई थी, पर चेहरे पर एक अद्भुत कोमलता। वह मंदिरों की सीढ़ियों पर बैठकर लोगों के चेहरे पढ़ता—उनकी आँखों में छिपे लालच, प्रेम और पीड़ा को समझने की कोशिश करता। लेकिन भिक्षा नहीं माँगता था वह… शायद इसलिए कि उसकी भूख रोटी से नहीं, सत्य से थी।
नगर के बाहर एक उजड़ा उपवन था। उसमें एक प्राचीन बावड़ी थी, जिसके बारे में कहा जाता “इसका जल पीने वाला प्रेम में कभी अपवित्र नहीं होता।” उसी बावड़ी के पास रहती थी राजलक्ष्मी। उसका नाम ही उसके अस्तित्व का सार था—वह राजसी ठाठ से दूर, पर हृदय से रानी थी। उसकी आँखों में निर्मलता थी, और चेहरे पर वह तेज जो केवल सच्चे प्रेम में ही जागता है।
एक संध्या, जब आकाश लालिमा में नहा रहा था, सुदर्शन ने पहली बार राजलक्ष्मी को बावड़ी के किनारे देखा। वह पानी में पैर डुबोए आकाश की तरफ देख रही थी। उसके पैरों के पास जल में कमल-सी छवि बन रही थी। सुदर्शन की नज़रें उस पर टिक गईं। तभी राजलक्ष्मी ने मुड़कर देखा। उसकी साँसें एक क्षण के लिए रुक गईं—ऐसा लगा जैसे उसके भीतर का कोई सुप्त सुर जाग उठा हो।
“आप कौन हैं?” उसने पूछा, आवाज़ में एक अजीब कंपन।
सुदर्शन मुस्कुराया। उसकी मुस्कान में रेत की गर्मी और ओस की ठंडक दोनों समाई थीं।
“मैं वह हूँ जो तुम्हारे भीतर हमेशा से था… बस तुमने अभी तक पहचाना नहीं।”
उस दिन के बाद से राजलक्ष्मी और सुदर्शन का मिलना नियमित हो गया। वह उसे उपवन में राग सिखाती, और वह उसे जीवन के मर्म समझाता। धीरे-धीरे, उनके बीच शब्दों की जगह मौन ने ले ली। एक दिन जब राजलक्ष्मी ने सुदर्शन का हाथ थामा, तो उसकी उँगलियों में स्पर्श नहीं, एक प्रार्थना थी।
“तुम जानते हो, मेरा विवाह राजकुमार चंद्रकेतु से तय है?” उसने एक दिन कहा।
सुदर्शन ने आकाश की ओर देखते हुए कहा, “जो प्रेम को युद्ध समझता है, वह कभी तुम्हारा नहीं हो सकता।”
“पर पिता की आज्ञा…”
“प्रेम आज्ञा नहीं, आत्मा की भाषा माँगता है।”
किंतु समय ने करवट ली। विवाह की तैयारियाँ शुरू हो गईं। राजलक्ष्मी के कक्ष में लाल चुनरी और गहनों के डिब्बे आने लगे। एक रात, जब चंद्रकेतु की सेना के घोड़ों की टापों की आहट नज़दीक आई, राजलक्ष्मी ने निर्णय लिया। वह भागी—उस उपवन की ओर, जहाँ सुदर्शन प्रतीक्षा कर रहा था।
“ले चलो मुझे उस रेत तक, जहाँ प्रेम और मृत्यु एक हों,” उसने कहा।
वे दोनों मरुस्थल के गर्भ में एक टूटी हवेली में रुके। उसकी दीवारें जर्जर थीं, पर उन पर उकेरी गई प्रेम कथाएँ अभी भी साँस ले रही थीं। सुदर्शन ने बावड़ी का जल राजलक्ष्मी को पिलाया। “यह जल हमें उस प्रेम तक ले जाएगा, जहाँ कोई विछोह नहीं,” उसने कहा।
पर चंद्रकेतु के सैनिक उनके पीछे थे। एक सुबह, जब सूरज ने रेत को सोने जैसा चमकाया, सैनिकों ने हवेली को घेर लिया। सुदर्शन ने राजलक्ष्मी की ओर देखा। उसकी आँखों में डर नहीं, विश्वास था।
“याद रखना, प्रेम की रेत में मृत्यु भी पवित्र होती है,” उसने कहा।
दोनों ने हाथ मिलाया और मरुस्थल की ओर चल पड़े। पीछे से तलवारों की खनखनाहट थी, आगे केवल अनंत रेत।
जब सैनिकों ने उन्हें ढूँढ़ा, तो वहाँ कोई नहीं था—केवल रेत पर दो छायाएँ बिखरी थीं, जो धीरे-धीरे हवा में विलीन हो रही थीं। कहते हैं, उस रात से आज तक, जहाँ वे लुप्त हुए, वहाँ की रेत चाँदनी में स्वयं प्रकाशित होती है। गाँव वाले कहते हैं। “प्रेम की रेत मृत्यु को नहला देती है, और मृत्यु प्रेम को अमर कर जाती है।”