पुरानी पेंशन व्यवस्था पुनः बहाली की मांग, कर्मचारियों में आक्रोश

सुनील कुमार माथुर
हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश हैं और हमारे संविधान में समानता के अधिकारों की बात कहीं गयी हैं लेकिन आज सरकार स्वंय असमानता का व्यवहार कर रही है जिससे देश भर में असंतोष पनप रहा हैं । सरकार ने वर्ष 2005 में पुरानी पेंशन व्यवस्था को बंद कर नई पेंशन व्यवस्था लागू कर दी जो कर्मचारियों के हितों पर कुठाराघात ही कहा जा सकता हैं चूंकि सरकार ने जो नई पेंशन व्यवस्था लागू की हैं वह कर्मचारियों पर जबरन थोपी गयी हैं चूंकि आज भी विधायकों और सांसदों को पुरानी ही पेंशन व्यवस्था के तहत केवल पांच साल की सेवा के बाद ही पेंशन मिलने लग जाती हैं जबकि ईमानदारी व निष्ठा के साथ सुचारू रूप से कार्य करने वाले सरकारी कर्मचारियों को सेवाकाल पूरा होने पर पेंशन से वंचित कर दिया गया यह कैसा समानता का अधिकार का उल्लंघन ।
विधायक व सांसद तो जनता के जनप्रतिनिधि हैं न कि सरकारी कर्मचारी चूंकि जनप्रतिनिधियों को जनता-जनार्दन चुनका भेजती हैं और सरकार पांच साल के दौरान उन्हें वेतन व भते व नाना प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं । इतना ही नहीं विधायक पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद फिर सासंद के लिए चुन लिया जाता हैं और यह सेवाकाल भी जब पूरा हो जाता हैं तो दो दो पेशन उन्हें मिलती हैं जबकि सरकारी कर्मचारी से उनका हक छिना जा रहा हैं । यह कैसी दोहरी नीति ।
सरकार को चाहिए कि वह कानून कायदों में पुनः परिवर्तन कर सेवानिवृत कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना के अन्तर्गत लाकर उन्हें पेंशन का वास्तविक लाभ दिलाये अन्यथा सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारियों के समक्ष रोजी रोटी व जीवन यापन की समस्या खडी हो जायेगी। आज भी वे कर्मचारी दुःखी व परेशान है जिनको राजस्थान सरकार ने अनुदानित शिक्षण संस्थानों से हटाकर गांवों में लगाया और उन्हें 2005 की पेंशन स्कीम से जोडकर पेंशन से वंचित कर दिया गया । जबकि वे पेंशन के हकदार है चूंकि उनकी नियुक्ति अनुदानित शिक्षण संस्थान में 2005 से पहले से ही चली आ रही थी लेकिन राज्य सरकार ने मनमाने तरीके से कानूनों में संशोधन कर उनके हितों पर कुठाराघात किया हैं । इससे 2005 से पहलें के नियुक्त कर्मचारियों में व्यापक रोष है ।
यह कहां का न्याय हैं कि 2005 की पेंशन स्कीम कर्मचारियों पर जबरन थोपी जा रहीं है और विधायकों और सांसदों को पुरानी ही पेंशन व्यवस्था का लाभ दिया जा रहा हैं जो समानता के अधिकारों का खुला उल्लघंन ही कहा जा सकता हैं । एक ही देश व राज्य में अलग-अलग कानून कायदे लागू करना सभ्य समाज में शोभा नहीं देता हैं और न ही हम किसी के हितों पर कुठाराघात कर सकतें है । समस्या तो समाधान चाहती है न कि दलगत राजनीति। हर सरकार अपने आपकों लोक कल्याणकारी सरकार कहती हुए नहीं थकती हैं फिर यह असमानता, दौहरे नियम क्यों ?
सरकार जनहित को ध्यान में रखते हुए पुनः पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल करें व कर्मचारियों में पनप रहें असंतोष व आक्रोश को शान्त करें । कर्मचारियों को विश्वास में लेकर सरकार कार्य करें ताकि सर्वत्र अमनचैन और भाईचारे की भावना बनी रहें । सरकार व कर्मचारी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिनको एक – दूसरें का पूरा ख्याल रखना चाहिए । चूंकि कर्मचारी ही सरकार की रीढ की हड्डी होते हैं सरकार को स्थिर बनायें रखनें में उनका बहुत बडा योगदान होता हैं । अपने हको के लिए आवाज उठाना कोई बुरी बात नहीं । कर्मचारियों पर जबरन नई पेंशन व्यवस्था लागू करना एवं थोपना किसी भी तरह से न्याय संगत नहीं कहा जा सकता हैं । पेंशन कर्मचारियों का अधिकार हैं । अतः यह अधिकार किसी भी हालत में छिना नहीं जा सकता हैं ।
अनुदानित शिक्षण संस्थान में कार्यरत कर्मचारियों को राजस्थान सरकार ने 2005 के बाद राजस्थान स्वैच्छिक ग्रामीण शिक्षा सेवा नियम के तहत ग्रामीण इलाकों में नियुक्त देकर इन्हें पेंशन से वंचित कर दिया तब न्याय की गुहार को लेकर कर्मचारियों ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया । हाईकोर्ट ने 2018 में अपने फैसले में कहा था कि राजस्थान सिविल सेवा ( अंशदायी ) पेंशन नियम 2005 लागू से पूर्व नियुक्त अनुदानित शिक्षण संस्थानओ के कर्मचारियों को पेंशन नियम 1996 के अनुसार सरकारी सेवकों के समान पेंशन से वंचित करना असंवैधानिक है ।
लेकिन जब सरकार को कोई राहत नहीं मिली तो वह देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट में गयी और जब वहां से भी राहत नहीं मिली तो सरकार ने उन तथ्यों के साथ रिव्यू याचिकाएं दायर की जिसे पूर्व में निर्णय में विवेचित नहीं किया गया था । सरकार का तर्क था कि कोर्ट ने 2010 के जिस उप नियम को असंवैधानिक ठहराया था उसे 2012 में संशोधित किया जा चुका था । संशोधित उप नियम का विवेचन किया ही नहीं गया । राजस्थान हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की रिव्यू याचिकाओं को स्वीकार करते हुए अपने 2018 के उस आदेश को वापस ले लिया हैं।
जिसमें निर्देशित किया गया था कि राजस्थान सिविल सेवा ( अंशदायी पेंशन ) नियम 2005 लागू होने से पहले अनुदानित शिक्षण संस्थानों में स्वीकृत पदों पर नियुक्त सभी कर्मचारी राजस्थान सिविल सेवा ( पेंशन ) नियम 1996 द्धारा शासित होगे। इस फैसले से जहां एक ओर राजस्थान सरकार को बडी राहत मिली हैं वही दूसरी ओर कर्मचारियों में आक्रोश व्याप्त है । इन कर्मचारियों का कहना हैं कि राजस्थान सरकार ने अपने स्वार्थ की खातिर कर्मचारियों के हितों पर कुठाराघात किया हैं । कर्मचारियों का कहना हैं कि वे पेंशन नियम 2005 के लागू होने से पूर्व ही अनुदानित शिक्षण संस्थानों में कार्यरत थे और सरकार जन पर 2005 का पेंशन नियम जबरन थोप रही हैं और उन्हें पेंशन से वंचित कर रही हैं जो असंवैधानिक है ।
कर्मचारियों का कहना हैं कि एक ओर सरकार समानता के अधिकारों की दुहाई देती हैं और अपने आप को लोक कल्याणकारी सरकार कहती हैं वही दूसरी ओर उन्हें पेंशन से वंचित कर उन्हें व उनके परिवारजनों को आन्दोलन के लिए उकसा रहीं है । उनका कहना हैं कि कर्मचारी सरकार ने कोई भीख नहीं मांग रहें है अपितु वे अपना वाजिब हक मांग रहें है
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Selfish amd money minded government playing wrongly with innocent and hardworking people.
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Ek din sahi kaha 👍
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