पशुधन के रक्षक के रूप में जाने जाते हैं चौमू देवता
भुवन बिष्ट/देवभूमि समाचार
रानीखेत। देवभूमि उत्तराखंड सदैव देवों की तपोभूमि के नाम से जानी जाती है। यहाँ की संस्कृति, सभ्यता,परंपरा सदैव विश्वविख्यात रही है। देवभूमि उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में पशुपालन प्राचीनकाल से ही जीविकोपार्जन का सदैव सशक्त माध्यम रहा है। देवभूमि उत्तराखंड के हर गांव में अधिकांशतः चमू देवता अथवा चौमू देवता का मंदिर बना होता है।
देवभूमि के गाँवों में चमू देवता पशुधन के रक्षक के रूप जाने जाते हैं। लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी में इनके मंदिरों की स्थापना को माना जाता है। देवभूमि के गाँवों में अधिकांशतः पशुपालकों द्वारा चमू देवता को पशुओं के प्रजनन के बाईस दिन में दूध चढ़ाने की भी प्राचीन परंपरा प्रचलित है और इस दिन इनकी पूजा अर्चना भी की जाती है।
चमू देवता अथवा चौमू देवता का मूलस्थान चम्पावत जनपद में गुमदेश स्थित चमलदेव में है किन्तु चम्पावत के अतिरिक्त चमू देवता के मंदिर प्राचीन काल से ही कुमाऊँ के विभिन्न क्षेत्रों व विभिन्न गांवों में भी बने हैं। चमू अथवा चौमू का अर्थ चार मुंह वाला भी होता है। देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में चमू देवता को पशुधन और पशुपालकों का देवता माना गया है।
चमू देवता के प्राचीन मंदिर छोटे आकार के चार दरवाजों वाले हैं क्योंकि इन्हें चतुर्मुख नाम से भी जाना जाता है चारों मुखों अथवा चार दिशाओं की ओर इन मंदिरों के दरवाजे वाले मंदिर विशेष शैली में निर्मित होते हैं। चमू देवता देवभूमि के कुमाऊ में लोकदेवता के रूप में भी जाने जाते हैं।
देवभूमि उत्तराखंड के कुमांऊ में लोकदेवता के रूप में पूजे जाने वाले चमू देवता की संकल्पना पशुपतिनाथ शिव के चतुर्मुखी रूप से की जाती है। चार मुखी रूप के कारण ही इन्हें चमू देवता के नाम से जाना जाता है। पशुओं के उत्तम स्वास्थ्य की कामना व सदैव दूध दही का भंडार भरा रहे तथा पशुओं की रक्षा के लिए चमू देवता की पूजा की जाती है।
मान्यता है कि पशुओं के जीवन का प्रबंधन का कार्य जिन देवताओं को मिला है,उनमें चमू देवता का प्रमुख स्थान है। ग्रामीणों द्वारा चमू देवता को प्रसन्न करने के लिए नवरात्रों में पूजा अर्चना भी की जाती है। पशुधन के रक्षक के रूप में पहचाने जाने वाले लोकदेवता चमू देवता को चौमू देवता ,चौखम देवता,चमू राज आदि नामों से जाना जाता है।
मान्यता है कि पशुधन के प्रजनन के बाद जब चमू देवता की पूजा की जाती है और उन्हें दूध चढा़या जाता है तब ही उस दूध को रोटी चावल के साथ प्रयोग कर सकते हैं। उसके बाद ही सार्वजनिक प्रयोग व बिक्री के लिए प्रयोग किया जा सकता है। उससे पूर्व नहीं। अधिकांशतः प्रत्येक गांव में चमू देवता का मंदिर बना होता है।
देवभूमि उत्तराखंड के लोकदेवता चमू देवता की कल्पना पशुपतिनाथ भगवान शिव की चतुर्मुखी रूप से की जाती है। कहा जाता है प्राचीन काल में चंपावत गुमदेश क्षेत्र में बकासुर नामक राक्षस ने आतंक मचाया था। तब उस समय एक वृद्ध महिला की करुण पुकार पर चौमू देवता ने इस क्षेत्र को बकासुर के आतंक से मुक्त कराया था।
चमू देवता को धनुषधारी के रूप में भी जाना जाता है। इनकी पूजा अर्चना में मंदिर में धनुष बनाकर चढा़ने की भी परंपरा है। लोकदेवता चमू देवता चतुर्मुखी पशुपति,महादेव शिव का ही प्रतीक हैं वैसे इसकी तुलना वैदिक देवता पूषन से भी की जाती है इस कारण इन्हें रास्ता भूल जाने वालों का मार्गदर्शक माना जाता है।
चौमू देवता अथवा चमू देवता चारागाह में जाने वाले पशुओं के रक्षक माने जाते हैं।इसलिये रास्ता भूल गये पशुओं गायों को बटोर सकुशल गौशाला गोठ में ले आने के लिए उसकी स्तुति की जाती है। मान्यता है कि वे जंगली जानवरों से भी पशुधन की रक्षा करते हैं। पशुपालकों द्वारा पशुओं के उत्तम स्वास्थ्य के लिए तथा पशुधन की रक्षा के लिए चमू देवता की पूजा अर्चना की जाती है।
चार मुखी रूप के कारण कहते हैं चौमू (चमू) देवता
देवभूमि उत्तराखंड के कुमांऊ में लोकदेवता के रूप में पूजे जाने वाले चमू देवता की संकल्पना पशुपतिनाथ शिव के चतुर्मुखी रूप से की जाती है। चार मुखी रूप के कारण ही इन्हें चमू देवता के नाम से जाना जाता है। पशुओं के उत्तम स्वास्थ्य की कामना व सदैव दूध दही का भंडार भरा रहे तथा पशुओं की रक्षा के लिए चमू देवता की पूजा की जाती है। मान्यता है कि पशुओं के जीवन का प्रबंधन का कार्य जिन देवताओं को मिला है,उनमें चमू देवता का प्रमुख स्थान है।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »भुवन बिष्टलेखक एवं कविAddress »रानीखेत (उत्तराखंड)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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