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मोदी सरकार के खिलाफ किसानों की लामबंदी

हमें यह समझना होगा कि कृषि संकट इतना गहरा हो गया है कि इसका त्वरित समाधान करना असंभव हो गया है। किसानों की दृढ़ता उस कष्टदायक स्थिति को दर्शाती है, जिससे वे पिछले कुछ दशकों से गुजर रहे हैं। इससे उन्हें बार-बार लामबंद होते रहने की प्रेरणा मिलेगी। #आलेख : शिंजानी जैन, अंग्रेजी से अनुवाद : संजय पराते

भारत के किसान आंदोलन ने नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से सबसे बड़ी चुनौती पेश की है। चुनाव नजदीक आने के साथ, किसान एक बार फिर विनाशकारी नवउदारवादी मॉडल के तहत ग्रामीण गरीबी को चुनौती देने के लिए लामबंद हो रहे हैं। ठीक तीन साल पहले और दशकों बाद, भारतीय किसान सबसे बड़े सामाजिक आंदोलनों में से एक में एकजुट हुए थे और नरेंद्र मोदी सरकार को उन्होंने एक महत्वपूर्ण झटका दिया था। इस साल की शुरुआत से उन्होंने अपना विरोध अभियान फिर से शुरू कर दिया है।

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्यों के किसान संघों से मिलकर बने एक संयुक्त मंच ने फरवरी में “दिल्ली चलो” मार्च का आह्वान किया था। पंजाब-हरियाणा सीमा पर किसानों को भारी सरकारी दमन का सामना करना पड़ा था। पंजाब के तेईस वर्षीय किसान शुभकरण सिंह की दिल्ली की ओर बढ़ते समय सिर में चोट लगने से मृत्यु हो गई। “दिल्ली चलो” आह्वान का नेतृत्व दो समूहों, संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम — गैर-राजनैतिक) और किसान-मजदूर मोर्चा (केएमएम) ने किया था।

एसकेएम (गैर-राजनैतिक) संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) से अलग हुआ गुट है, जो देश भर के किसान संघों का एक सामूहिक मोर्चा है, जिसने वर्ष 2020-21 में किसान आंदोलन का नेतृत्व किया था। 23 फरवरी को खुद एसकेएम भी विरोध प्रदर्शन के चल रहे आह्वान में शामिल हो गया। इसके बाद एसकेएम ने एक और आह्वान जारी कर किसान संगठनों से एक सम्मेलन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में एकत्रित होने को कहा। 14 मार्च को आयोजित सभा में देश भर से पचास हजार से अधिक किसानों ने भाग लिया, जिसकी परिणति सभी किसान संगठनों के बीच एकता की अपील के रूप में हुई। किसान संगठनों ने भी सर्वसम्मति से मतदाताओं से आगामी चुनावों में मोदी सरकार को हराने की अपील की।

इन किसान संघों द्वारा उठाई गई प्राथमिक मांगों में चयनित फसलों की एक टोकरी के लिए कानूनी रूप से गारंटीकृत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), इनपुट लागत में कमी, कृषि ऋण की माफी और बिजली (संशोधन) विधेयक 2022 को निरस्त करना शामिल है। वे चाहते हैं कि एमएसपी की गणना किसानों के लिए गठित राष्ट्रीय किसान आयोग – स्वामीनाथन आयोग – की सिफारिशों के अनुसार की जाएं।

वर्ष 2006 में, स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की कि किसानों को सकल लागत (सी-2) पर 50 प्रतिशत ज्यादा का भुगतान एमएसपी (सी-2+50%) के रूप में किया जाए। यह 2006 से किसानों की मुख्य मांग रही है। सी-2 में पारिवारिक श्रम की आरोपित लागत, स्वामित्व वाली भूमि का आरोपित किराया और स्वामित्व वाली पूंजी पर आरोपित ब्याज शामिल है। केंद्र सरकार का कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) हर साल अपनी मूल्य नीति रिपोर्ट में सी-2 की गणना और प्रकाशन करता है।



मोदी सरकार द्वारा पेश किए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए किसान संघों ने विरोध प्रदर्शन का पिछला दौर शुरू किया दर। दिसंबर 2021 में, जब भारत सरकार ने कृषि कानूनों को वापस ले लिया और गारंटीकृत कीमतों और प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ आपराधिक मामलों को वापस लेने सहित आंदोलन की अन्य मांगों पर चर्चा करने पर सहमति व्यक्त की, तो किसान समूहों ने विरोध प्रदर्शन बंद करने का फैसला किया था।



शून्य-बजट प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने, देश की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए फसल पैटर्न में वैज्ञानिक परिवर्तन और एमएसपी को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के तरीकों पर निर्णय लेने के लिए एक समिति का गठन किया गया था। समिति में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और कृषि अर्थशास्त्रियों को शामिल किया जाना था।



बहरहाल, विरोध कर रहे किसानों का तर्क है कि समिति अपने वादों को पूरा करने में पूरी तरह से विफल रही है। अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और एसकेएम के नेता बादल सरोज ने एमएसपी समिति के गठन के संबंध में कुछ मुख्य मुद्दों की पहचान की है। उन्होंने कहा कि जिन एसकेएम सदस्यों को समिति में नियुक्त किया जाना चाहिए था, उन्हें नियुक्त नहीं किया गया, जबकि जिन लोगों को समिति में जगह मिली, उन्होंने सार्वजनिक रूप से फसलों के लिए एमएसपी के प्रति अपना विरोध व्यक्त किया था।



सरोज के मुताबिक, मोदी सरकार पिछले दरवाजे से तीन कृषि कानूनों को लागू करने की कोशिश कर रही है। उदाहरण के लिए, अंतरिम बजट में, इसने निजी क्षेत्र को भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन और ब्रांडिंग जैसी कटाई के बाद की गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति दी है।



भारतीय किसानों के असंतोष के पीछे और भी गहरे अंतर्निहित कारक हैं। विरोध के पिछले आंदोलन के दौरान किए गए सर्वेक्षणों में, किसानों ने बताया कि वे लगातार संकट की स्थिति में रह रहे थे, उन्हें अपनी उपज के लिए वह न्यूनतम मूल्य भी नहीं मिल रहा था, जो खेती और मानव श्रम की लागत को कवर कर सके। साथ ही खाद, बीज, कीटनाशक और बिजली की लागत भी बढ़ती जा रही है। खेती की लागत मुश्किल से पूरी होने के कारण उन्हें हर कदम पर कर्ज लेने को मजबूर होना पड़ता है।



उनकी उपज के लिए कम रिटर्न किसानों को लगातार ऋणग्रस्त होने के लिए मजबूर कर रहा है। पिछले दो दशकों में कृषि देश के किसानों के लिए आजीविका का व्यवहार्य स्रोत नहीं रही है। उनकी मुसीबतें और भी बढ़ गई हैं, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से कृषि उपज की सरकारी खरीद में लगातार गिरावट आ रही है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2022-23 में सरकार की गेहूं खरीदी पिछले वर्ष की तुलना में 53 प्रतिशत गिर गई।



राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2013 और वर्ष 2019 के बीच प्रति परिवार कृषि ऋण में लगभग 58 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आधे से अधिक किसान परिवार कर्ज में है और उन पर प्रति परिवार औसत बकाया ऋण वर्ष 2018 में 74,121 रूपये था। ग्रामीण भारत में औसत घरेलू आय 300,000 रुपये से थोड़ी अधिक है।



पिछले दो दशकों में भारत में कृषक आत्महत्याएँ तेजी से बढ़ी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा हाल ही में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 और 2022 के बीच लगभग 54000 किसानों और खेत मजदूरों ने आत्महत्या की। 1995 और 2018 के बीच, कुल मिलाकर लगभग चार लाख किसानों ने आत्महत्या की है।



बेहतर विकल्पों के अभाव में भारत में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी कृषि से जुड़ा हुआ है। वर्ष 2021-22 के लिए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, कुल कार्यबल का लगभग 45.5 प्रतिशत अभी भी कृषि और संबद्ध गतिविधियों में लगा हुआ है, जो वर्ष 2022-23 के लिए भारत के सकल मूल्य वर्धन का 18.3 प्रतिशत है। हालांकि भारत के औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान बढ़ा है, ये क्षेत्र कृषि में लगे अधिशेष श्रम को खपाने में असफल रहे हैं।



कृषि भूमि के बढ़ते विखंडन ने भी अधिकांश छोटे और सीमांत किसानों के लिए जीवन कठिन बना दिया है। वर्ष 1971 में पहली कृषि जनगणना के बाद से, भारत में भूमि जोत की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई है, जो वर्ष 1970-71 में 7.1 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2015-16 में 14.5 करोड़ हो गई है। सीमांत भूमि जोत (एक हेक्टेयर से कम) की संख्या वर्ष 1971 में 3.6 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2011 में 9.3 करोड़ हो गई है।



जैसे-जैसे भूमि जोत की संख्या में वृद्धि हुई, वर्ष 1970 और वर्ष 2016 के बीच औसत भूमि जोत का आकार आधे से भी अधिक घटकर 2.28 हेक्टेयर से 1.08 हेक्टेयर हो गया। साथ ही, भूमिहीन खेत मजदूरों की संख्या वर्ष 2001 में 10.68 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2011 में 14.43 करोड़ हो गई, जबकि इसी अवधि के दौरान किसानों की संख्या 12.73 करोड़ से घटकर 11.88 करोड़ रह गई। पहली बार खेतिहर मजदूरों की संख्या किसानों से अधिक हो गई है।



ये नकारात्मक रुझान – लाभप्रदता में गिरावट, बढ़ती इनपुट लागत, वैकल्पिक अवसरों की कमी, उत्पादकता में स्थिरता – अंततः एक गहरे कृषि संकट के लक्षण हैं। यह संकट भारत में लगातार सरकारों की लापरवाह नीतियों के इतिहास से उत्पन्न हुआ है। समस्या की जड़ में आजादी के तुरंत बाद भारत में किए गए पूंजीवादी विकास की विषम प्रकृति और जम्मू-कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा को छोड़कर अधिकांश भारतीय राज्यों में भूमि सुधारों की विफलता है। अधिकांश राज्यों में, भूमि सुधार एक सैद्धांतिक मसला बन कर रह गया, जो कभी भी वास्तविकता में नहीं बदल सका।



समतावादी कृषि सुधारों के अभाव में, कृषि विकास को बढ़ावा देने के सरकारी प्रयासों के फलस्वरुप अमीर और भूमि-संपन्न ग्रामीण कृषक वर्ग को अत्यधिक लाभ हुआ। इस प्रकार कृषि विकास और उत्पादकता में वृद्धि के साथ-साथ वर्ग और जाति की असमानतायें बढ़ती गईं। हरित क्रांति से भी बड़ी असमानता उत्पन्न हुई, जिसके तहत भूमि के स्वामित्व, संसाधनों और कृषि ऋण तक पहुंच ने अमीर और भूमि-संपन्न ग्रामीण किसानों को अनुपातहीन लाभ प्राप्त करने में सक्षम बनाया।



असमान विकास के इस प्रक्षेप पथ के कारण बड़े पैमाने पर गरीबी, बेरोजगारी और ग्रामीण किसानों की क्रय शक्ति में गिरावट आई। इसके परिणामस्वरूप आंतरिक बाज़ार के आकार में धीमी वृद्धि हुई और औद्योगीकरण की प्रगति धीमी हो गई। 1990 के दशक की शुरुआत में, भारत ने खुद को पूरी तरह से भुगतान संतुलन संकट में फंसा पाया। भारत सरकार ने नवउदारवादी आर्थिक सुधारों को लागू करके, व्यापार और वित्त को उदार बनाकर और सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण करके इस संकट से निकलने की कोशिश की।



कृषि क्षेत्र के भीतर ये सुधार अपस्फीतिकारी राजकोषीय नीतियों में और ग्रामीण बुनियादी ढांचे, सिंचाई, कृषि सब्सिडी और अनुसंधान सहित कृषि के लिए सार्वजनिक निवेश में कमी में तब्दील हो गए। ग्रामीण और कृषि व्यय में गिरावट ने भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। उर्वरकों, ईंधन और बिजली के लिए सब्सिडी में कटौती से कृषि इनपुट लागत बढ़ गई है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के खुलने से कपास और तिलहन जैसी गैर-खाद्य अनाज फसलों की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में भी गिरावट आई है। साथ ही, कृषि सब्सिडी और एमएसपी के रूप में किसानों को सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा कमजोर हो गई है।



इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यह कृषि संकट सभी वर्गों के — अमीर और गरीब, भूमि-संपन्न और भूमिहीन — किसानों को अपनी आर्थिक परिस्थितियों में बदलाव की मांग करने के लिए प्रेरित कर रहा है। संकट की बहुमुखी प्रकृति के बावजूद, भारतीय मीडिया में बहसें प्रश्न के परिधीय पहलुओं पर ही केंद्रित होती हैं। एक बार फिर, राष्ट्रीय समाचार पत्रों के पन्ने किसानों की नाकेबंदी से आम लोगों के लिए पैदा होने वाले व्यवधान पर लगातार रिपोर्टों से भरे हुए हैं और एमएसपी या कृषि के विविधीकरण की चर्चा जैसे गंभीर मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया गया है।



भारत में अप्रैल और मई 2024 में आम चुनाव होने हैं। अभियान की तैयारी में, मोदी सरकार ने जनवरी 2024 में एक भव्य समारोह का आयोजन किया, जिसमें प्रधान मंत्री ने स्वयं अयोध्या में उस स्थल पर राम मंदिर का उद्घाटन किया, जो एक मस्जिद का पूर्व स्थल था और जिसे वर्ष 1992 में एक भीड़ द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। धार्मिक माहौल को भारत के हिंदू बहुसंख्यकों को आकर्षित करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जबकि उनके जीवन के केंद्र में बेरोजगारी, भूख, कृषि आत्महत्या जैसे जो मुद्दे हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया गया है।



इस किसान आंदोलन का प्राथमिक प्रभाव इन भौतिक मुद्दों को चर्चा के केंद्र में लाना रहा है। किसानों के विरोध की इस लहर ने एक बार फिर मोदी की अजेयता की छवि को धूमिल कर दिया है। एसकेएम के बादल सरोज के अनुसार, इस आंदोलन के कारण बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और कुछ हद तक मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में राजनीतिक विपक्ष एकजुट हुआ है। संघर्ष की जैविक प्रकृति के कारण, आंदोलन ने स्थिति को सरकार के नियंत्रण और अपेक्षाओं से परे धकेल दिया है। जिन मुद्दों को वे छुपाना चाहते थे, वे फिर से लोगों की रोजमर्रा की चर्चा में हैं।



सी-2+50% की दर पर कानूनी रूप से गारंटीकृत एमएसपी की किसानों की मांग को विपक्षी गुट द्वारा सार्वजनिक रूप से समर्थन दिया गया है, जो खुद को भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (इंडिया) कहता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने निम्नलिखित प्रतिज्ञा की है : “अगर आम चुनाव के बाद इंडिया ब्लॉक सत्ता में आता है तो हम एमएसपी को कानूनी गारंटी देंगे। किसानों ने जब भी कांग्रेस से कुछ मांगा है, उन्हें दिया गया है, चाहे कर्जमाफी हो या एमएसपी। हमने हमेशा किसानों के हितों की रक्षा की है और आगे भी करेंगे।”



हमें यह समझना होगा कि कृषि संकट इतना गहरा हो गया है कि इसका त्वरित समाधान करना असंभव हो गया है। किसानों की दृढ़ता उस कष्टदायक स्थिति को दर्शाती है, जिससे वे पिछले कुछ दशकों से गुजर रहे हैं। इससे उन्हें बार-बार लामबंद होते रहने की प्रेरणा मिलेगी। अपने निरंतर संघर्ष के माध्यम से, वे भारत के लोगों के सामने आने वाले भौतिक मुद्दों को एजेंडे पर वापस लाते रहेंगे, भले ही इस वर्ष कोई भी निर्वाचित हो।

-लेखिका शिंजानी जैन एक शोधकर्ता हैं,


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