संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता
डॉ पूर्णिमा अग्रवाल
अम्बाह, मुरैना (म.प्र.)
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल”
भाषा सदैव नदी के उस प्रवाह के समान रही है। जो निरंतर अविरल गति से अवरोधों को पार करते हुए आगे बढ़ती है। संसार में मनुष्य मूक रहकर जीवन नहीं जी सकता उसे कहीं न कहीं संवेदनाओ को व्यक्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने भावों व विचारों को व्यक्त करता है। भारत देश एक ऐसा देश है जिसमें अनेक विविधताएं, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, धार्मिक त्योहार आदि मनाए जाते रहे हैं। इससे भाषा की विभिन्नता पर भी प्रभाव पड़ता है।
विभिन्न युगों में भाषा परिवर्तनशील रही है। प्राचीन भारत में संस्कृत, मध्ययुग में पाली प्राकृत, अपभ्रंश, उर्दू तथा अंग्रेजी शासन व्यवस्था में अंग्रेजी प्रशासक भाषा के रूप में विद्यमान रही। अनेक युगों में भाषा विचार-विनिमय का माध्यम रही है। हिंदी केवल उत्तर भारत में ही नहीं, दक्षिण भारत में भी प्रचार प्रसार का माध्यम रही है। देश में समय-समय पर राजभाषाओं द्वारा शासन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किसी एक भाषा की आवश्यकता महसूस हुई। प्राचीन एवं मध्यकाल में भारत में संस्कृत राजभाषा के रूप में, मध्यकाल में पाली, मुस्लिम शासन व्यवस्था में फारसी भाषा को, और ब्रिटिश शासन ने अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में आसीन किया।
संविधान में कहीं भी हिंदी के लिए ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया।
विभिन्न भाषाओं के अधिपत्य के द्वारा हिंदी की स्थिति अधिक दयनीय होती गई। एक समय ऐसा आया कि साहित्यकारों को अपनी लेखनी के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के स्वरों के द्वारा भारत वासियों को जाग्रत करने की आवश्यकता हुई। इसमें कुछ लेखक सफल भी रहे। 15 अगस्त 1947 में भारत स्वतंत्र होने के पश्चात अनेक शिक्षाविद् विचारकों को एक ऐसी भाषा की आवश्यकता हुई जो सरल, स्वभाविक ममत्वपूर्ण हो। जिससे समस्त भारतवासी विश्व कुटुंबकम की भावना से प्रेरित होकर कार्य कर सके।
हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसमें सभी को एकता के सूत्र में बांधे रखने की शक्ति है। अनेक अहिंदी भाषी देशों ने विरोध किया, कि हिंदी में साहित्य और वैज्ञानिकता का अभाव है। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा मान लिया तो भारतीय भाषाओं का विकास रुक जाएगा। हिंदी कठिन है। इसे लोग समझ नहीं सकेंगे।अनेक भ्रांतियों के पश्चात 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की अनेक शर्तो को हिंदी पूरा करती है। फिर भी वह भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है। संविधान में कहीं भी हिंदी के लिए ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। इसे या तो संघ की भाषा या संघ की राजभाषा कहा गया है। आज हिंदी भारत में ही नहीं विदेशों में अनिवार्य विषय के रूप में अध्ययनरत है।
अनेक साहित्यकारों मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, निराला आदि ने साहित्य सृजन मे लीन होकर हिंदी के अस्तित्व की रक्षा की है। आज हिंदी वृहत्तर रूप में चारों दिशाओं में व्याप्त है। हिंदी पाठ्यक्रम के द्वारा प्रशिक्षित होकर प्रत्येक क्षेत्र में राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वाणिज्यि आदि विभिन्न रूपों में कार्य कर रहे हैं। सोशल मीडिया, इंटरनेट मे भी हिंदी का सबसे अधिक प्रयोग होता है। भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 के पाठ्यक्रम में परिवर्तन कर बालकों के सर्वांगीण विकास व शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा कर रोजगारन्मुख बनाना है। तथा हिंदी को व्यवसायिक रूप से क्रियान्वित करना ही सरकार का मुख्य उद्देश्य है। हिंदी को गरिमामयी बनाए रखने के लिए प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाते है। यह दिवस स्वभाषा आत्मचेतना व भारतीय भाषाओं के बीच ‘सद्भावना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
भारत देश एक ऐसा देश है जिसमें अनेक विविधताएं, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, धार्मिक त्योहार आदि मनाए जाते रहे हैं। इससे भाषा की विभिन्नता पर भी प्रभाव पड़ता है।