मन की शुद्धता और वाणी की मधुरता

सुनील कुमार माथुर
कहते हैं कि मन चंगा तो कटौती में गंगा । यह बात बिल्कुल सही हैं लेकिन कटौती में गंगा तभी होगी जब हमारा मन शुद्ध हो और वाणी मधुर हो । हमारा खान – पान शुद्ध हो , हमारा आचरण शुद्ध हो और हमारा व्यवहार दूसरों के प्रति अच्छा हो । व्यक्ति का जीवन शाकाहारी है लेकिन फिर भी वह मांसाहारी बन जीवन जी रहा हैं । मांसाहार व मदिरा का सेवन कर हम अपने ही धर्म को भ्रष्ट कर रहें है जो न्याय संगत बात नहीं है ।
परमात्मा ने हमें यह मानव जीवन उपहार स्वरूप दिया हैं तो फिर हम धर्म ग्रंथ पढने , पूजा – पाठ , भजन – कीर्तन , कथा कराने व सुनने से दूर क्यों भाग रहें है । अरे ! कथा स्थल , धर्म स्थल उस परमसता की गोद है जिसे हम पाना चाहतें है । हम कितने भी बडे क्यों न हो जाये लेकिन जब हम मां की गोद में सिर रखते हैं तो कितने आनंद की प्राप्ति होती हैं।
ठीक उसी प्रकार परमात्मा को पाने के लिए हम दूर – दर तक धर्म स्थलों पर जाते हैं लेकिन जब हमारे ही पडौस में या मौहल्ले में कहीं भजन – कीर्तन , कथा सत्संग होता हैं तो हम अनेक बहाने बनाकर वहां जाने से कतराते हैं जो उचित बात नहीं है ।
आज का व्यक्ति धर्म ग्रंथों की अनेक बातें जानता हैं लेकिन जब तक उन्हें जीवन में आत्मसात नहीं कर लेता , तब तक वह जानना जीवन में कोई मायने नहीं रखता हैं । धर्म ग्रंथों की बातों को जानने के साथ ही साथ उन्हें जीवन में अंगीकार करके हमें उसी के अनुरूप जीवन व्यतीत करना चाहिए । हमारे धर्म ग्रंथ व सच्चे साधु संत हमारे सच्चे मार्गदर्शक होते हैं और वे कथा , भजन – कीर्तन व सत्संग के माध्यम से ही हमें प्रभु के दर्शन करा सकते हैं ।
गृहस्थ होते हुए भी संत सा जीवन व्यतीत करे तभी जीवन जीने का आनंद हैं । हमारी वाणी मधुर होनी चाहिए । उसमें कडवाहट के स्थान पर मिठास होनी चाहिए । क्रोध , अंहकार , ईर्ष्या , लोभ लालच , राग द्वेष से इंसान को दूर रहना चाहिए । बदले की भावना व्यक्ति को भीतर से जला कर राख कर देती हैं । अतः बदले की भावना से दूर रहना चाहिए । यह हमारे सबसे बडे शत्रु है ।
प्रभु के नाम का स्मरण करे , भजन – कीर्तन व सत्संग करे लेकिन कभी भी किसी की चुगली , निंदा , आलोचना न करें और जहां तक हो सके इन बुराइयों से बचें । ईश्वर तो बडे ही दयालु और कृपालु है । वे कभी भी किसी का हाथ नहीं पकडते हैं और हाथ पकड लिया तो फिर वे साथ नहीं छोडते हैं । आप जब किसी धर्म स्थल पर जाते हैं तब भगवान यह नहीं देखते है कि आप उनके लिए क्या लाये हैं ।
स्नान करके आयें हैं या नहीं। आपके हाथ धुले हुए है या नहीं वे तो बस यह देखते हैं कि आप किस भाव से आये हैं । वे तो अपने भक्तों के भाव के भूखें हैं । अतः आप किसी भी रूप में ईश्वर के नाम का स्मरण करे । भजन – कीर्तन व सत्संग करे आखिर में वे सभी एक ही हैं। उनका नाम व स्वरूप अलग – अलग हैं । हम इतने स्वार्थी है कि हर वक्त ईश्वर से कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं।
इतना ही नहीं हमारे अंदर धैर्य व आत्मविश्वास भी नहीं हैं । कभी किस देवी देवता को पूजते है तो कभी किसी को । चूंकि हम तो यह चाहते हैं कि मांगते ही ईश्वर हमारी इच्छा की पूर्ति कर दे । उस समय हम यह नहीं सोचते है कि हमने कितनों की तत्काल मदद की हैं । तत्काल मदद मांगने का अर्थ तो यही हुआ कि हम पूजा पाठ अपने स्वार्थ की खातिर कर रहें है जबकि ईश्वर की भक्ति निस्वार्थ भाव से होनी चाहिए ।
भगवान शिव को लोग भोले भाले भगवान कहते है । भोले भाले यह दो शब्द है । शिव अपने भक्तों के लिए भोले हैं लेकिन दुष्टजनों के लिए भाले के समान हैं । वे दुष्टजनो का नाश कर देते हैं । अतः हमें भगवान की पूजा अर्चना विधि विधान के अनुरूप निस्वार्थ भाव से ही करनी चाहिए।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
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From »सुनील कुमार माथुरलेखक एवं कविAddress »33, वर्धमान नगर, शोभावतो की ढाणी, खेमे का कुआ, पालरोड, जोधपुर (राजस्थान)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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