कविता : उल्का पिंड
कविता : उल्का पिंड… उत्ताल तरंगों पर नर्तन करती रहतीं शिव के तांडव में तुम्हारा संसार सुबह शाम की तलहटी में खत्म हो गया सिर्फ अब तुम्हारा स्निग्ध प्रेम मौन भाव से हरे भरे वृक्षों की डालियों को सुनहली शाम की आभा में सबकी आत्मा को रक्तरंजित कर रहा… #राजीव कुमार झा
सितारों से सजे
आकाश में उल्कापिंड की
तरह
वह तुम्हारे दामन में गिरता
जल गया
वह अब एक सपना हो गया
अंतहीन सागर में समाती
यौवन की तरंगों से भरपूर
तुम्हारी सांसों में
रंग-बिरंगे फूलों की महक
समाई है।
अब तुम जीवन मंदिर में
भगवान के चरणों की
दासी हो
रात – दिन उसकी सेवा
तुम्हारे जीवन की सबसे
बड़ी खुशी है।
सितारों से सजी रात में
तुम्हारी गहरी नींद
अब सबको जगा देती
यादों के चिराग को जलाती
अट्टहास करते सागर के
प्यार की बांहों में
तुम समा जाती
सांसों की धड़कन में
जिंदगी की लहरें
उत्ताल तरंगों पर
नर्तन करती रहतीं
शिव के तांडव में
तुम्हारा संसार
सुबह शाम की तलहटी में
खत्म हो गया
सिर्फ अब तुम्हारा
स्निग्ध प्रेम मौन भाव से
हरे भरे वृक्षों की
डालियों को
सुनहली शाम की आभा में
सबकी आत्मा को
रक्तरंजित कर रहा