पांव पसारती पत्रकारिता, साख खोता पत्रकार
ओम प्रकाश उनियाल
लोकतंत्र का चौथा-स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता बेशक आज अपना कुनबा बढा़ती जा रही है। नए-नए अखबार, पत्रिकाएं खबरिया टीवी चैनल, सोशल-मीडिया चैनल अनगिनत संख्या में छाते जा रहे हैं। सबमें अपनी-अपनी टीआरपी बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। कई अखबारों और चैनल्स के नाम तो इतने अजूबे-से होते हैं कि उनके नाम सुनते ही यह अनुमान लग जाता है कि इनकी पत्रकारिता का स्तर क्या होगा?
पैर पसारती जा रही मीडिया के दौर में जो पहले से स्थापित समाचार पत्र थे वे भी उसी माहौल में ढल चुके हैं। पहले अखबारों में जो खबरें छपती थी उनका असर भी जोरदार होता था। आज के चलायमान दौर में खबरें भी ज्यादातर चलायमान ही होती हैं। जबसे इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया की शुरुआत हुई तब प्रिंट मीडिया का बोलबाला कम-सा होता नजर आ रहा था। फिर भी छोटे-बड़े नए अखबारों की संख्या बढ़ती ही रही।
खबरों का टिकाऊपन व विस्तारीकरण प्रिंट मीडिया में ही होता है। पाठक जब तक अखबार नहीं पढ़ता तब तक उसे चैन नहीं आता। टीवी के खबरिया चैनल तो खबरों को ही दोहराते रहते हैं। या फिर नेताओं का पैनल बिठाकर बे-सिरपैर की चर्चाओं का सिलसिला जारी रखते हैं। चिल्ला-चिल्लाकर, सनसनी फैलाने वाली, राई का पहाड़ बनाकर खबरों का पढ़ना लीक-सी बन गयी है। जो कि श्रोताओं/दर्शकों को उबाऊ-सी लगती हैं।
वैसे तो अखबारों के अब डिजिटल संस्करण भी निकलने लगे हैं। लेकिन पाठक अपनी रुचि के अनुसार पढ़ना पसंद करता है। बात करें सोशल मीडिया की तो इंटरनेट का जमाना है। कुछ घटते ही खबर भी सोशल मीडिया पर तुरंत हाईलाइट। इससे इंटरनेट पत्रकारिता का एक पक्ष मजबूत तो हुआ लेकिन खबरों की विश्वसनीयता का पक्ष कमजोर नजर आता है। न खबरों का संपादन, न वाक्य-विन्यास और ना ही सही ढंग से पुष्टि होती है।
पत्रकारिता का क्षेत्र जितना बड़ा होगा उतनी पत्रकारिता की भूमिका मजबूत होगी। संविधान में चौथा-स्तंभ तो नाम के लिए ही है। क्योंकि, विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका उस पर पूरी तरह हावी हो चुकी है। जिस उद्देश्य के लिए चौथा-स्तंभ बनाया गया उसका अस्तित्व तो अन्य तीन स्तंभ खत्म करने पर तुले हुए हैं। इनकी सच्चाई उगल दो तो समझो अपने पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मारने के समान है। सरकारी विज्ञापन ठप। जो कि मीडिया की आय का साधन है। जो सत्ता की चाटुकारिता करता रहे उस पर सरकारें मेहरबान। यही कारण है कि अखबार प्रकाशन, चैनल चलाना चुनौती बनता जा रहा है। आपसी प्रतिस्पर्धा इतनी है कि खींचतान चलती ही रहती है। जिसके कारण पीत पत्रकारिता को बल मिलता है।
पत्रकारिता एक ऐसा नशा है जिसकी एक बार लत लग जाए तो छूटने का नाम नहीं लेती। स्वाभाविक है कि मीडिया का कुनबा बढेगा तो इनके घरानों में काम करने वाले पत्रकारों की जमात भी बढ़ेगी। पत्रकार बनने का शौक हर कोई पालना चाहता है। हरेक को इसमें ग्लैमर नजर आता है। पद, प्रतिष्ठा लेकिन मेहनताना के नाम पर ठेंगा। जो वैतनिक तौर पर काम करते भी हैं उनकी भी आत्मा से पूछिए पत्रकारिता में किस प्रकार की निष्पक्षता होती है।
दबाव की नीति में भला निष्पक्षता व स्वतंत्रता की अपेक्षा की जा सकती है। डेस्क हो या फील्ड-वर्क सब पर ‘ हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ वाली कहावत लागू होती है। जरा खटपट हुई नहीं कि सीधा बाहर का रास्ता। ऐसा नहीं कि धाकड़, निष्पक्ष व निर्भीक पत्र व पत्रकार हैं ही नहीं। ऐसे-ऐसे भी पत्र व पत्रकार हैं जो सच्चाई लिखने में नहीं चूकते। लेकिन वे नेताओं, पुलिस व अपराधियों की आंखों की किरकिरी बन जाते हैं।
सच लिखने की सजा कई पत्रकार अपनी जान खोकर भुगत चुके हैं। एक सच्चाई यह भी है कि पत्रकारिता और पत्रकारों को कोई कुछ समझता ही नहीं। चुनौतियां मीडिया घरानों के आगे भी हैं और पत्रकारों के आगे भी। इसके बाबजूद भी कलम चलती ही रहती है।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »ओम प्रकाश उनियाललेखक एवं स्वतंत्र पत्रकारAddress »कारगी ग्रांट, देहरादून (उत्तराखण्ड) | Mob : +91-9760204664Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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