पहलगाम पर हमला : शांति की धरती पर हिंसा का साया

पहलगाम — यह नाम सुनते ही मन में एक चित्र उभरता है: शांत वादियाँ, कलकल बहती लिद्दर नदी, देवदारों के साये में सिमटा एक स्वर्ग-सा स्थान। लेकिन बीते कल उस स्वर्ग पर जो हमला हुआ, उसने हमें एक बार फिर झकझोर दिया है — यह सवाल पूछने पर मजबूर किया है कि क्या हमारे देश के सबसे शांत हिस्से भी अब सुरक्षित नहीं रहे?
जब सौंदर्य पर बारूद बरसता है
जहाँ एक ओर पहलगाम सैकड़ों पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, वहीं दूसरी ओर यह स्थान आतंक की रणनीति का भी हिस्सा बनता जा रहा है। बीते दिन जो हमला हुआ, वह महज़ एक आतंकवादी घटना नहीं थी, वह हमारे भरोसे पर हमला था। वह एक सवाल था हमारी नीति पर, हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर, और सबसे बढ़कर, हमारी संवेदनशीलता पर।
हिंसा के पीछे छुपी राजनीति
हमें यह समझना होगा कि ऐसे हमले केवल गोलियों या बमों से नहीं होते, वे विचारधारा से होते हैं। ऐसी विचारधारा जो असहिष्णुता को ‘विचार’ मान बैठी है, जो संवाद के स्थान पर हथियार चुनती है। जब भी कोई पर्यटक घाटी में मारा जाता है, वह केवल एक व्यक्ति की मौत नहीं होती — वह कश्मीर के भरोसे, पहलगाम की छवि और भारत की विविधता पर आघात होता है।
शांति की कीमत
पहलगाम की धरती पर शांति अब एक संकल्प बन चुकी है। लेकिन इस संकल्प को बनाए रखना सिर्फ सेना या सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, यह हमारी भी ज़िम्मेदारी है — कि हम नफरत को न पनपने दें, कि हम संवाद को प्राथमिकता दें, कि हम सच को स्वीकार करें और ज़ख्मों पर मरहम रखें, घाव न दें।
मीडिया और समाज की भूमिका
क्या हम इस हमले को बस एक “ब्रेकिंग न्यूज़” मानकर भूल जाएंगे? क्या हमारे राजनीतिक दल इस पर सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलेंगे? या हम एक राष्ट्र के रूप में इस पर आत्ममंथन करेंगे? हमें तय करना होगा कि हम शांति की तलाश में कितने ईमानदार हैं — या हम बस प्रतीकात्मक शोक सभा कर संतुष्ट हो जाते हैं?
अंत में…
पहलगाम पर हमला केवल वहाँ की घाटियों पर नहीं हुआ, वह हमारी चेतना पर हुआ है। हमें इस घटना को केवल एक सुरक्षा चूक न मानकर, एक सामाजिक और नैतिक प्रश्न मानना होगा। हमें यह याद रखना होगा कि जो शांति वर्षों की मेहनत से बनती है, वह एक क्षण की हिंसा से टूट सकती है।
अब समय है — केवल श्रद्धांजलि का नहीं, उत्तरदायित्व का।
अब समय है — पहलगाम को फिर से शांति की प्रतीक बनाने का।