
सत्येन्द्र कुमार पाठक
करपी, अरवल, बिहार
भारतीय राष्ट्रीयता के जन्म, विकास और सशक्तिकरण की कहानी से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसके प्रारंभिक उन्नायक, जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्णतः सचेत थे। इस गहन प्रतिबद्धता के कारण उन्हें अक्सर विदेशी सरकार की दमनकारी नीतियों का शिकार होना पड़ता था और उसकी नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में, जब हिंदी गद्य-निर्माण की चेष्टा और हिंदी-प्रचार आंदोलन अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी जड़ें मजबूत कर रहा था, ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई.), ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचित वक्ता’ (सन् 1880 ई.) पत्रों के जीर्ण-शीर्ण पृष्ठ आज भी इस तेज और पुष्ट प्रगति के मुखर साक्ष्य हैं।
भारत में प्रकाशित होने वाला पहला हिंदी भाषा का समाचार पत्र, ‘उदंत मार्तंड’ (द राइजिंग सन), 30 मई 1826 को शुरू हुआ। इसी ऐतिहासिक दिन को “हिंदी पत्रकारिता दिवस” के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि इसने हिंदी भाषा में पत्रकारिता की एक नई सुबह का सूत्रपात किया था। वर्तमान में, हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजी पत्रकारिता के लंबे समय से चले आ रहे दबदबे को सफलतापूर्वक खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का बोलबाला था, लेकिन आज हिंदी भाषा का झंडा चहुंओर लहरा रहा है, जो इसकी बढ़ती शक्ति और पहुंच का प्रमाण है। भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास जैसे प्रमुख नगरों में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके का “कलकत्ता गज़ट” इस दिशा में कदाचित् पहला महत्वपूर्ण प्रयत्न था।
हिंदी के पहले पत्र ‘उदंत मार्तंड’ (1826) के प्रकाशित होने तक, इन महानगरों की एंग्लो-इंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी। इस अवधि में, फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र संभवतः हस्तलिखित थे, जैसा कि 1801 में प्रकाशित ‘हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी’ नाम के संकलन से पता चलता है, जिसमें उत्तर भारत के कई “अखबारों” के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र “हिंदोस्तानी” प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने “बंगाल गजट” का प्रवर्तन किया, जो पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र “समाचार दर्पण” को (27 मई 1818) जन्म दिया।
इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के ‘समाचारचंद्रिका’ और “संवाद कौमुदी”, फारसी-उर्दू के “जामे जहाँनुमा” और “शमसुल अखबार” तथा गुजराती के “मुंबई समाचार” के दर्शन होते है। हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का “उर्दू अखबार” (1833) और मराठी का “दिग्दर्शन” (1837) हिंदी के पहले पत्र “उदंत मार्तंड” (1826) के बाद ही आए। “उदंत मार्तंड” के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था और इसकी भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने “मध्यदेशीय भाषा” कहा है।
प्रारंभिक चरण (1826 ई. से 1873 ई.): प्रयोगअवधि में हिंदी पत्रकारिता ने अपनी नींव रखी। ‘उदंत मार्तंड’ के बाद प्रमुख पत्रों में बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदन्त मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854, एकमात्र दैनिक), प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872) जैसे कई पत्र शामिल थे।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे और कुछ साप्ताहिक। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे, जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी-उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे, जिससे पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। ‘कविवचनसुधा’ (1867) का प्रकाशन इस युग का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने नई भाषाशैली के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। यह हिंदी पत्रकारिता का दूसरा महत्वपूर्ण युग था। इस युग के एक छोर पर भारतेन्दु हरिश्चंद्र का “हरिश्चंद्र मैगजीन” (1873) था और दूसरे छोर पर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदित “सरस्वती”। इन 27 वर्षों में 300-350 से ऊपर पत्र प्रकाशित हुए, जो नागपुर तक फैले हुए थे। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परन्तु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में “विचारपत्र” ही कह सकते हैं।
साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उन पर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था। उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। “कविवचनसुधा” (1867), “हरिश्चंद्र मैगजीन” (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका” (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीका-टिप्पणियों से अधिकारी तक घबराते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए-नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में पंडित रुद्रदत्त शर्मा (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), बदरीनारायण चौधरी “प्रेमधन” (आनंदकादंबिनी, 1881), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883) जैसे कई प्रमुख पत्रकार आए। 1895 ई. में “नागरीप्रचारिणी पत्रिका” का प्रकाशन आरंभ होता है, जिसने गंभीर साहित्य समीक्षा का आरंभ किया। 1900 ई. में “सरस्वती” और “सुदर्शन” के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।. द्विवेदी युग और राष्ट्रीय चेतना का उत्कर्ष (बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशक, 1901-1920):है। बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता में पिछले युग की विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैली क्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं।
इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित “सरस्वती” (1903-1918) का नेतृत्व रहा। इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए – जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902 आदि। समालोचना के क्षेत्र में “समालोचक” (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित “इतिहास” (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। “सरस्वती” और “इंदु” (1909) दोनों हिंदी की साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय “हिंदुस्तान” (1883) है। 1885 में बाबू सीताराम ने “भारतोदय” नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। इनमें “भारतमित्र” ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। फिर भी हम “अभ्युदय” (1905), “प्रताप” (1913), “कर्मयोगी”, “हिंदी केसरी” (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से “कलकत्ता समाचार”, “स्वतंत्र” और “विश्वमित्र” प्रकाशित हुए। 1921 में काशी से “आज” और कानपुर से “वर्तमान” प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है।
1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ-साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की और जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्त्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया।
विदेशी सरकार ने अनेक बार नए-नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हिन्दी पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी। इस युग के प्रमुख साहित्यिक मासिक पत्रों में ‘स्वार्थ’ (1922), ‘माधुरी’ (1923), ‘मर्यादा’, ‘चाँद’ (1923), ‘मनोरमा’ (1924), ‘समालोचक’ (1924), ‘कल्याण’ (1926), ‘सुधा’ (1927), ‘विशालभारत’ (1928), ‘त्यागभूमि’ (1928), ‘हंस’ (1930) आदि शामिल हैं। आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आईं और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है।
साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में “आज” (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। “आज” ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्र संपादक और पत्रकार दिए हैं। बिहार में पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक जैसे ‘आर्यावर्त’, ‘प्रदीप’, ‘जनशक्ति’, ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ और ‘हिंदुस्तान’, ‘दैनिक जागरण’, ‘प्रभात खबर’, ‘आज’ जैसे बड़े नाम भी इस युग में प्रमुखता से उभरे । 90 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों, विशेषकर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’ आदि के नगरों-कस्बों से कई संस्करण निकलने शुरू हुए। जहां पहले महानगरों से अखबार छपते थे, भूमंडलीकरण के बाद आई नई तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों और कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हो गया।
साथ ही, इन दशकों में ग्रामीण इलाकों और कस्बों में फैलते बाजार में नई वस्तुओं के लिए नए उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई। हिंदी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का एक जरिया बन कर उभरे हैं। साथ ही साथ अखबारों के इन संस्करणों में स्थानीय खबरों को प्रमुखता से छापा जाता है, जिससे अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। मीडिया विशेषज्ञ सेवंती निनान ने इसे ‘हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार’ कहा है। 1974 ई. में गया से हिंदी साप्ताहिक गया समाचार , मगधाग्नि , मगध धरती , समस्या दूत , करपी से प्रकाशित 1982 मगध ज्योति , मुजफ्फरपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक निर्माण भारती है। बिहार के हिंदी दैनिक आर्यावर्त , प्रदीप , पाटलिपुत्र टाइम्स , जनशक्ति , आत्म कथा , हिंदी मासिक दिव्य रश्मि है। पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक हिंदुस्तान , प्रभात खबर , आज , दैनिक जागरण , हजारीबाग झारखण्ड से हिंदी दैनिक वर्ल्ड वाइज न्यूज़ है। 2024 से सोशल मीडिया पर पोर्टल हिंदी दैनिक संस्कार न्यूज़ , देवभूमि अनेक पोर्टल न्यूज़ प्रकाशित हो रहे हैं ।
राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण की रिपोर्टें स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं कि हिंदी पत्रकारिता कितनी तेजी से बढ़ रही है। 1990 में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती थी कि पांच अगुवा अखबारों में हिंदी का केवल एक समाचार पत्र हुआ करता था। लेकिन 2010 के सर्वेक्षण ने साबित कर दिया कि सबसे अधिक पढ़े जाने वाले पांच अखबारों में शुरू के चार हिंदी के हैं। एक उत्साहजनक बात और भी है कि आईआरएस सर्वे में जिन 42 शहरों को सबसे तेजी से उभरता माना गया है, उनमें से ज्यादातर हिंदी हृदय प्रदेश के हैं। इसका सीधा अर्थ है कि अगर पिछले तीन दशकों में दक्षिण के राज्यों ने विकास की जबरदस्त प्रगति की, तो आने वाले दशक हिंदी भाषियों के हैं। ऐसा नहीं है कि अखबार के अध्ययन के मामले में ही यह प्रदेश अगुवा साबित हो रहे हैं; आईटी इंडस्ट्री का एक आंकड़ा बताता है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं में नेट पर पढ़ने-लिखने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
यह स्पष्ट है कि हिंदी की आकांक्षाओं का यह विस्तार पत्रकारों की ओर भी देख रहा है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग भी समाचार पत्रों की पंक्तियों में दिखने चाहिए। पिछले आईएएस, आईआईटी और तमाम शिक्षा परिषदों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि हिंदी भाषियों में सबसे निचली सीढ़ियों पर बैठे लोग भी जबरदस्त उछाल के लिए तैयार हैं। हिंदी के पत्रकारों को उनसे एक कदम आगे चलना होगा ताकि उस जगह को फिर से हासिल कर सकें, जिसे पिछले चार दशकों में हमने लगातार खोया। वास्तव में, पिछले 200 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्र-पत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बंगला के “कलेर कथा” ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है।
हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। पत्रकारिता आज भी हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक हलचलों का जीवंत प्रतिबिंब है, और यह समाज के एक बड़े वर्ग तक पहुंचती है, जिसकी तुलना में विशुद्ध साहित्य का पहुंचना असंभव है। हिंदी पत्रकारिता का यह अनवरत विकास इसकी जीवंतता और राष्ट्र के साथ इसके अटूट संबंध का प्रमाण है।