अपनापन

अपनापन, उनकी बच्चियां लड़कों की तरह फटाफट कार्य करती। कभी सुनील को अपना पानी या चाय का कप एवं गिलास भी नहीं धोने दिया। कमलेश की पत्नी भी काफी सीधी थी। सभी सुनील का इतना ध्यान रखते थे कि उसे कोई तकलीफ़ न हो। #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
संघर्ष का नाम ही जीवन है। जो संघर्ष का हंसते-हंसते सामना कर लेता हैं वह संघर्ष की दौड जीत जाता हैं, वरना हताशा व निराशा के सिवाय कुछ भी नहीं है। सुनील, चेतन, गोपाल, चांद मोहम्मद गहरे मित्र थे। सभी अपने-अपने क्षेत्र में कार्यरत थे। सुनील की इसी दौरान सरकारी नौकरी लग गई।
कडे संघर्ष व कोर्ट कचहरी के दरवाजे खटखटाने के बाद सरकारी नौकरी का अवसर मिला लेकिन वह कभी अपने शहर से बाहर गया नहीं सो उसे यही चिंता थी कि कहां रहूंगा। कैसे आफिस जाऊंगा। वहां का स्टाफ कैसा होगा। तभी एक मित्र ने सुनील को उस शहर के बैंक मैंनेजर कमलेश जी का पता दिया और एक पत्र भी कमलेश के नाम दिया। सुनील वहां पहुंचा और सारी बात बताई।
उन्होंने अपने मकान का ऊपर वाला कमरा सुनील को रहने के लिए दे दिया और कहा बेटा ! यह घर तुम्हारा ही है और इसे अपना समझ कर रहना। उनके कोई लडका नहीं था सो सुनील को अपने लडके की तरह रखा। सुबह शाम सभी साथ में गर्मागर्म स्वादिष्ट भोजन करते।
उनकी बच्चियां लड़कों की तरह फटाफट कार्य करती। कभी सुनील को अपना पानी या चाय का कप एवं गिलास भी नहीं धोने दिया। कमलेश की पत्नी भी काफी सीधी थी। सभी सुनील का इतना ध्यान रखते थे कि उसे कोई तकलीफ़ न हो। जब सुनील को पहली तनख्वाह मिली तो उसने कमलेश को देनी चाहिए तो उन्होंने कहा कि यह तुम्हारी पहली तनख्वाह है जो अपने पिताजी को गांव जाकर उन्हें उनके हाथ में देना।
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वे बहुत खुश होगे। सुनील ने कहा आप ही मेरे पिता हो जिसने मुझे इतना प्यार स्नेह दिया। तब कमलेश ने कहा कि ठीक है मुझे पान के लिए ग्यारह रूपये दे दीजिए। डेढ माह बाद सुनील का अन्य स्थान पर तबादला हो गया और वह वहां से अपने नये कार्य स्थल पर अन्य शहर चला गया।
लेकिन वह आज भी कमलेश का अपनापन याद करता हैं तो आंखों से आंसू टपक पडते है। चूंकि आज अपने ही अपनों से दूर हो रहे हैं और एक कमलेश था जिसने पराये को भी अपनापन दिया और उसे अपने जीवन में खुशियों कि बहार लाने का हुनर सिखाया।
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