सद् साहित्य से दूरी क्यों…?
सद् साहित्य से दूरी क्यों…? आज साहित्य के क्षेत्र में आनलाईन के नाम पर लोगों से धन बटोरा जा रहा है और जो धन की पूर्ति कर देता है उनकी आनलाईन रचनाएं प्रकाशित हो रही है और आकर्षक प्रमाण पत्र रचनाकारों को भेजा जा रहा हैं। वे भी उन्हें पाकर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
आज का इंसान सद् साहित्य से दूर होता जा रहा है जो एक चिंता का विषय है। कहने को भले ही हम अपने आप को आधुनिक समाज का नागरिक कह ले , लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के नाम पर हम फूहडता की ओर जा रहे है और जो फूहडता का विरोध करता है उसे पिछडा व गंवार कहा जा रहा है यह एक कटु सत्य है। आज का बालक बालिका मोबाइल, व्हाट्सएप, गूगल व फेसबुक सब देख रहे है लेकिन उन्हें टोकने वाला कोई नहीं है कि वे उन पर क्या देख रहे हैं चूंकि टोकने वाले अभिभावक भी तो वही देख रहे है जो बच्चों को नहीं देखना चाहिए।
आज का लेखक या कलमकार खुद ही लिख रहा है और प्रकाशित होने पर अपनी प्रकाशित रचनाएं स्वयं ही पढ कर खुश हो रहा है। चूंकि पाठकों के पास प्रकाशित रचनाएं पढने व उन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने का समय नहीं है। आज के रचनाकार भी अपनी अपनी रचनाओं को ही पढ रहे हैं। पूरी पत्र पत्रिकाओं में क्या क्या व किस किस की रचनाएं प्रकाशित हुई है से उन्हें कोई लेना देना नहीं है।
इधर सम्पादक मंडल भी उन्हीं की रचनाएं प्रकाशित कर रहे हैं जो उनके नियमित ग्राहक है और वार्षिक शुल्क भेज कर पत्र पत्रिकाएं मंगा रहे हैं या फिर रचनाकार को कहते है कि अमुक विषय पर रचना चाहिए, इधर उधर से काला पीला करके भेज दीजिए। अगर आपने ऐसा करने से मना कर दिया तो फिर आप उस पत्र पत्रिका से हमेंशा के लिए ब्लैक लिस्ट हो जाओगे।
आज साहित्य के क्षेत्र में आनलाईन के नाम पर लोगों से धन बटोरा जा रहा है और जो धन की पूर्ति कर देता है उनकी आनलाईन रचनाएं प्रकाशित हो रही है और आकर्षक प्रमाण पत्र रचनाकारों को भेजा जा रहा हैं। वे भी उन्हें पाकर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। यहीं वजह है कि आज रचनात्मक श्रेष्ठ साहित्य सृजन एक सपना सा बन गया है। रविवारीय परिशिष्ट से बच्चों का पृष्ठ नदारद हो गया है। कहने को प्रकाशक इक्का-दुक्का बाल रचनाएं प्रकाशित कर इतिश्री कर रहे हैं। इतना ही नेट से पूरा का पूरा पृष्ठ लेकर पत्र पत्रिकाओं को भरा जा रहा हैै।
जागरूक साहित्यकारों द्वारा संपादक मंडल के समक्ष सत्य को उजागर करने का अर्थ है ब्लैक लिस्ट होना। यहीं वजह है कि अब साहित्य सृजन के नाम पर संपादक मंडल की जमकर चापलूसी की जा रही है और हर अंक में मयफोटों अपनी रचनाएं प्रकाशित कराना ही मूल ध्येय हो गया है। यहीं वजह है कि आज पत्र पत्रिकाओं में चंद पत्र पत्रिकाओं को छोड दे तो शेष सभी में पाठकों की प्रतिक्रिया भी इक्का-दुक्का ही प्रकाशित होती है, वे भी खुल कर नहीं, अपितु संक्षिप्त में ही प्रकाशित होती है।
भला ऐसे माहौल में हम पाठकों को कैसे रचनात्मक श्रेष्ठ साहित्य से जोड़ पायेगे? यह आज सबसे बडी चिंता की बात है।