संघर्ष का जज्बा जब साथ हो तभी लेखन का आनंद है : माथुर

(देवभूमि समाचार)
जब कोरोना काल आया तब से पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में संकट के बादल छा गए और पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन धीरे-धीरे बंद होता चला गया एवं उसका स्थान सोशल मीडिया ने ले लिया। अब सभी पत्र-पत्रिकाएं ऑनलाइन हो गई हैं। आज चंद पत्र-पत्रिकाएं ही बाजार में आ रही हैं और ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाएं मोबाइल पर पढ़ना संभव नहीं हैं। हां, एक-दो लेख या समाचार भले ही पढ़ लें, वरना मात्र हेडिंग देखकर ही इतिश्री की जा रही है। हमारे जोधपुर संवाददाता ने साहित्यकार सुनील कुमार माथुर से जो साक्षात्कार लिया, उसे यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है:
प्रश्न: साहित्यकार के पास श्रेष्ठ साहित्य सृजन के लिए इतने नेक विचार कहां से आते हैं?
माथुर: लेखन का कार्य जितना आसान समझा जाता है उतना आसान नहीं है। श्रेष्ठ साहित्य सृजन के लिए हुनर, आत्मविश्वास और संघर्ष का जज्बा साथ हो तो सफलता के साथ ही साथ लेखन का आनंद भी बढ़ जाता है। नेक विचारों के लिए प्रतिदिन व्हाट्सएप पर सवेरे-सवेरे आने वाले महापुरुषों के अमृत वचन पढ़िए। सवेरे-सवेरे ढेरों सुप्रभात आते हैं और उनके साथ महापुरुषों के सुंदर सुंदर विचार भी आते हैं। आप उन्हें नियमित रूप से पढ़ें, अपनी डायरी में लिखें, उन पर चिंतन मनन करें और उन्हें अपने नेक विचारों के साथ शामिल करते हुए सकारात्मक सोच रखें। फिर साहित्य का सृजन कीजिए और फिर देखिए आपका लेखन अवश्य ही श्रेष्ठ होगा और पाठकों का दिल छू लेगा।
प्रश्न: क्या साहित्य सृजन में भी कड़ा परिश्रम करना पड़ता है?
माथुर: सफलता आसानी से नहीं मिलती। सफलता हासिल करने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद जी जैसे अनेक साहित्यकार हुए जिन्होंने घर फूंक तमाशा ही देखा। वे पारिश्रमिक के लालच में नहीं लिखा करते थे, अपितु उनका ध्येय समाज में सुधार करना था। उनके प्रयासों से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आए जो किसी से भी छिपे हुए नहीं हैं। किसी भी कार्य को करने में सफलता आसानी से हासिल नहीं होती। आपकी जिस क्षेत्र में रुचि है उस क्षेत्र में अपना पूरा समय ईमानदारी और निष्ठा के साथ देना होता है। वहीं दूसरी ओर प्रोत्साहन मिलना भी आवश्यक है। आप देखते हैं कि दूध से सीधा घी नहीं निकलता। पहले दूध को गर्म करें, फिर उसे ठंडा करके उसका दही जमाएं। दही के जमने पर उसे मथना पड़ता है और मथने पर जो मक्खन प्राप्त होता है, उसे गर्म करते हुए मथना पड़ता है और तब कहीं जाकर घी प्राप्त होता है। ठीक यहीं हाल श्रेष्ठ साहित्य सृजन में है। पहले विषय का चयन करें, फिर उस पर गहन चिंतन करें और फिर श्रेष्ठ शब्दों की माला के रूप में पिरोते हुए लिखते चलें। बस लेखन करते समय शांत वातावरण और एकाग्रचित्तता का होना नितांत आवश्यक है ताकि लेखन का क्रम न टूटे और आपके विचारों का प्रवाह निर्बाध रूप से चलता रहे।
प्रश्न: इस जिंदगी में अनेक झमेले हैं, फिर भी आप कैसे नियमित रूप से लेखन के लिए समय निकाल लेते हैं?
माथुर: हां, आपकी बात सोलह आना सत्य है। जिंदगी में अनेक झमेले हैं, लेकिन फिर भी साहित्यकार समाज का एक सजग प्रहरी है और हर वक्त चौकस रहकर उन झमेलों के बीच में से भी अपनी काम की बात ढूंढ कर निकाल ही लेता है और उन झमेलों को अपने भावों के साथ जिस खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करता है, वह काबिले तारीफ होता है। सत्य को सही ढंग से उजागर करना ही तो एक श्रेष्ठ साहित्यकार का मानवीय धर्म है ताकि किसी की भी भावना को ठेस न पहुंचे।
प्रश्न: तब तो निश्चित ही श्रम का फल मीठा होता होगा?
माथुर: नहीं, ऐसी बात नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी टांग खिंचाई करने वालों की कमी नहीं है। अगर आप किसी संपादक/प्रकाशक के कहे अनुसार उनकी हां में हां नहीं मिलाई, यानी आपने उनकी चापलूसी नहीं की, तो आप ब्लैक लिस्ट हो जाएंगे और आपका वहां से पता साफ है। इसलिए आज के समय में जो मौन रहता है, उसकी ही चवन्नी अठन्नी में चलती है, या फिर संपादक मंडल को चाय-नाश्ता कराते रहिए, उनकी पत्र-पत्रिकाओं के ग्राहक बनें। आदि आदि। यह मानव जीवन नीरस नहीं है। अनमोल है। प्रेरणादायक और आनंदमय है। बस हमें कब, क्या और कैसे इस जीवन को साधना है, उस पर सब कुछ निर्भर करता है। यह सत्य है कि श्रम का फल मीठा होता है। बस आपकी सोच सकारात्मक होनी चाहिए। आपकी वाणी पर नियंत्रण हो। राग-द्वेष, क्रोध, अहंकार, हिंसा और आपसी मनमुटाव जैसे अवगुणों से सदैव दूर रहें। आपका श्रेष्ठ साहित्य सृजन ही आपकी पूंजी है और राष्ट्र की अमूल्य धरोहर है। रचनाकार किसी दूसरी दुनिया का प्राणी नहीं है और न ही हम लोगों से अलग हैं। वह आप और हम में से ही हैं। बस भाषा, विचारों और लेखन पर आपकी पकड़ मजबूत होनी चाहिए।
प्रश्न: किसी साहित्यकार का सम्मान होने पर कैसा लगता है?
माथुर: कोई भी साहित्यकार किसी सम्मान को प्राप्त करने के लिए नहीं लिखता, अपितु वह अपने मन के भावों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ही साहित्य का सृजन करता है। जब कोई संस्था, संगठन, संस्थान अथवा अकादमी या राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर उसका सम्मान करती है, तो यह सम्मान उस साहित्यकार की लेखनी का सम्मान है। इसी के साथ ही यह सम्मान उन पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों और प्रकाशकों का भी सम्मान है जिन्होंने उस साहित्यकार को अपनी पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर स्थान देकर उसका मान और गौरव बढ़ाया और उनका हौसला अफजाई किया।
प्रश्न: आप पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं?
माथुर: मैं पाठकों को यही कहना चाहता हूं कि वे किसी भी रचना को पढ़ने के बाद उस रचना पर अपनी रचनात्मक टिप्पणी अवश्य ही करें और इसके लिए संपादक मंडल अपनी-अपनी पत्र-पत्रिकाओं में पाठकों के पत्र अवश्य ही प्रकाशित करें ताकि साहित्यकारों का मार्गदर्शन हो सके।
Nice