आती क्यों है ईद…?

नवाब मंजूर

अजी!
सुनते हो…
अगले सप्ताह ईद है
आज अपनी बुचिया और छोटकू
नये कपड़े दिलाने की जिद किए बैठे थे
पिछले साल भी तो नहीं दिलाया था
अम्मा तुमने
कहा था कोरोना है

लाकडाउन है
पापा की कमाई नहीं हो रही है
एक दिन काम पर जाते हैं
तो कई कई दिन बैठना पड़ता है
अब तो सब खुल गया है न सब-कुछ?
तो फिर क्यों नहीं
पापा भी रोज जा रहे हैं काम पर

फिर क्यों नहीं दिला रही हो
कपड़े नहीं सिला रही हो!
अब हम उन्हें बताएं तो क्या बताएं
कमाई तो जो हो रही है
वो हम ही जानते हैं
महंगाई भी तो है!
राशन जुटाना भी मुश्किल हो रहा है

करें तो क्या करें?
कुछ समझ नहीं आता
यह ईद वगैरह आती ही क्यों है?
झूठ मूठ बच्चों में आशा की किरण ले आती है
सपने दिखा जाती है
मत्थे पड़ जाता है मां बाप के
अरे सबकुछ सही सही उन्हें बता भी नहीं सकते

निराश उदास हताश हो जाएंगे
फिर उनके होंठों पर हंसी कहां ला पाएंगे?
आखिर कितने साल यूं ही हम उन्हें
दिलासा दिलाएंगे
बच्चे नहीं रहे हैं अब ये
जो झांसे में आएंगे!
बड़े हो रहे हैं
हो भी गये हैं
बार बार इनकी जायज़ मांगों को
अनदेखा भी तो नहीं कर सकते?

मुझसे अब उनका हाल देखा नहीं जाता!
ये लीजिए
मेरे कान की बाली और ये
चांदी की पायल
देकर सुनार को कुछ पैसे ले आइए
कम से कम बच्चों के कपड़े और
सेवइयों का इंतजाम तो हो जाएगा!

इनके उलाहना से बच जाएंगे
और मासूम चेहरों की मुस्कान लौट आएगी
अपनी तो जैसी कट रही है
कट ही जाएगी
ये ईद तो अगले साल भी आएगी ही
नहीं आती तो अच्छा होता
रोजा में तो नहीं रहती है , खाने की चिंता
सब्र रहता है।

यूंही सालों साल सब्र कर लेते
न बच्चे रोते
न शर्मिंदा हम होते!
बस! चुपचाप खाना खाते
या सोते भूखे
कोई पूछने वाला नहीं।
बच्चों को आशा तो नहीं रहती
उनकी आंखों में निराशा तो नहीं रहती
जाने किसलिए ये ईद हर वर्ष आ जाती है?
हमारी परीक्षा लेने
या देखने हमारी बेबसी!


¤  प्रकाशन परिचय  ¤

From »

मो. मंजूर आलम ‘नवाब मंजूर

लेखक एवं कवि

Address »
सलेमपुर, छपरा (बिहार)

Publisher »
देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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