फीचर

श्राद्ध और पितृपक्ष का वैज्ञानिक महत्व

वीरेन्द्र सिंह

श्राद्ध कर्म श्रद्धा का विषय है। यह पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम है। श्राद्ध आत्मा के गमन जिसे संस्कृत में प्रैति कहते हैं, से जुड़ा हुआ है। प्रैति ही बाद में बोलचाल में प्रेत बन गया। यह कोई भूत-प्रेत वाली बात नहीं है। शरीर में आत्मा के अतिरिक्त मन और प्राण हैं।

आत्मा तो कहीं नहीं जाती, वह तो सर्वव्यापक है, उसे छोड़ दें तो शरीर से जब मन को निकलना होता है, तो मन प्राण के साथ निकलता है। प्राण मन को लेकर निकलता है। प्राण जब निकल जाता है तो शरीर को जीवात्मा को मोह रहता है। इसके कारण वह शरीर के इर्द-गिर्द ही घूमता है, कहीं जाता नहीं। शरीर को जब नष्ट किया जाता है, उस समय प्राण मन को लेकर चलता है। मन कहाँ से आता है? कहा गया है चंद्रमा मनस: लीयते यानी मन चंद्रमा से आता है। यह भी कहा है कि चंद्रमा मनसो जात: यानी मन ही चंद्रमा का कारक है।

इसलिए जब मन खराब होता है या फिर पागलपन चढ़ता है तो उसे अंग्रेजी में ल्यूनैटिक कहते हैं। ल्यूनार का अर्थ चंद्रमा होता है और इससे ही ल्यूनैटिक शब्द बना है। मन का जुड़ाव चंद्रमा से है। इसलिए हृदयाघात जैसी समस्याएं पूर्णिमा के दिन अधिक होती हैं।
चंद्रमा वनस्पति का भी कारक है। रात को चंद्रमा के कारण वनस्पतियों की वृद्धि अधिक होती है। इसलिए रात को ही पौधे अधिक बढ़ते हैं। दिन में वे सूर्य से प्रकाश संश्लेषण के द्वारा भोजन लेते हैं और रात चंद्रमा की किरणों से बढ़ते हैं। वह अन्न जब हम खाते हैं, उससे रस बनता है।

रस से अशिक्त यानी रक्त बनता है। रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से मज्जा और मज्जा के बाद अस्थि बनती है। अस्थि के बाद वीर्य बनता है। वीर्य से ओज बनता है। ओज से मन बनता है। इस प्रकार चंद्रमा से मन बनता है। इसलिए कहा गया कि जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन। मन जब जाएगा तो उसकी यात्रा चंद्रमा तक की होगी। दाह संस्कार के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होगा, मन उसी ओर अग्रसर होगा। प्राण मन को उस ओर ले जाएगा। चूंकि 27 दिनों के अपने चक्र में चंद्रमा 27 नक्षत्र में घूमता है, इसलिए चंद्रमा घूम कर अ_ाइसवें दिन फिर से उसी नक्षत्र में आ जाता है। मन की यह 28 दिन की यात्रा होती है। इन 28 दिनों तक मन की ऊर्जा को बनाए रखने के लिए श्राद्धों की व्यवस्था की गई है।

चंद्रमा सोम का कारक है। इसलिए उसे सोम भी कहते हैं। सोम सबसे अधिक चावल में होता है। धान हमेशा पानी में डूबा रहता है। सोम तरल होता है। इसलिए चावल के आटे का पिंड बनाते हैं। तिल और जौ भी इसमें मिलाते हैं। इसमें पानी मिलाते हैं, घी भी मिलाते हैं। इसलिए इसमें और भी अधिक सोमत्व आ जाता है। हथेली में अंगूठे और तर्जनी के मध्य में नीचे का उभरा हुआ स्थान है, वह शुक्र का होता है। शुक्र से ही हम जन्म लेते हैं और हम शुक्र ही हैं, इसलिए वहाँ कुश रखा जाता है। कुश ऊर्जा का कुचालक होता है। श्राद्ध करने वाला इस कुश रखे हाथों से इस पिंड को लेकर सूंघता है।

चूंकि उसका और उसके पितर का शुक्र जुड़ा होता है, इसलिए वह उसे श्रद्धाभाव से उसे आकाश की ओर देख कर पितरों के गमन की दिशा में उन्हें मानसिक रूप से उन्हें समर्पित करता है और पिंड को जमीन पर गिरा देता है। इससे पितर फिर से ऊर्जावान हो जाते हैं और वे 28 दिन की यात्रा करते हैं। इस प्रकार चंद्रमा के तेरह महीनों में श्येन पक्षी की गति से वह चंद्रमा तक पहुँचता है। यह पूरा एक वर्ष हो जाता है। इसके प्रतीक के रूप में हम तेरहवीं करते हैं। गंतव्य तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए हर 28वें दिन पिंडदान किया जाता है। उसके बाद हमारा कोई अधिकार नहीं। चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाएगा।

राजनीति का हलवा

पिंडदान कराते समय पंडित लोग केवल तीन ही पितरों को याद करवाते हैं। वास्तव में सात पितरों को स्मरण करना चाहिए। हर चीज सात हैं। सात ही रस हैं, सात ही धातुएं हैं, सूर्य की किरणें भी सात हैं। इसीलिए सात जन्मों की बात कही गई है। पितर भी सात हैं। सहो मात्रा 56 होती हैं। कैसे? इसे समझें। व्यक्ति, उसका पिता, पितामह, प्रपितामह, वृद्ध पितामह, अतिवृद्ध पितामह और सबसे बड़े वृद्धातिवृद्ध पितामह, ये सात पीढियां होती हैं। इनमें से वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश, अतिवृद्ध पितामह का तीन अंश, वृद्ध पितामह का छह अंश, प्रपितामह का दस अंश, पितामह का पंद्रह अंश और पिता का इक्कीस अंश व्यक्ति को मिलता है। इसमें उसका स्वयं का अर्जित 28 अंश मिला दिया जाए तो 56 सहो मात्रा हो जाती है।

जैसे ही हमें पुत्र होता है, वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश उसे चला जाता है और उनकी मुक्ति हो जाती है। इससे अतिवृद्ध पितामह अब वृद्धातिवृद्ध पितामह हो जाएगा। पुत्र के पैदा होते ही सातवें पीढ़ी का एक व्यक्ति मुक्त हो गया। इसीलिए सात पीढिय़ों के संबंधों की बात होती है।

अब यह समझें कि 15 दिनों का पितृपक्ष हम क्यों मनाते हैं। यह तो हमने जान लिया है कि पितरों का संबंध चंद्रमा से है। चंद्रमा की पृथिवी से दूरी 385000 कि.मी. की दूरी पर है। हम जिस समय पितृपक्ष मनाते हैं, यानी कि आश्विन महीने के पितृपक्ष में, उस समय पंद्रह दिनों तक चंद्रमा पृथिवी के सर्वाधिक निकट यानी कि लगभग 381000 कि.मी. पर ही रहता है। उसका परिक्रमापथ ही ऐसा है कि वह इस समय पृथिवी के सर्वाधिक निकट होता है। इसलिए कहा जाता है कि पितर हमारे निकट आ जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में कहा है विभु: उध्र्वभागे पितरो वसन्ति यानी विभु अर्थात् चंद्रमा के दूसरे हिस्से में पितरों का निवास है। चंद्रमा का एक पक्ष हमारे सामने होता है जिसे हम देखते हैं। परंतु चंद्रमा का दूसरा पक्ष हम कभी देख नहीं पाते। इस समय चंद्रमा दक्षिण दिशा में होता है। दक्षिण दिशा को यम का घर माना गया है। आज हम यदि आकाश को देखें तो दक्षिण दिशा में दो बड़े सूर्य हैं जिनसे विकिरण निकलता रहता है। हमारे ऋषियों ने उसे श्वान प्राण से चिह्नित किया है। शास्त्रों में इनका उल्लेख लघु श्वान और वृहद श्वान के नाम से हैं। इसे आज केनिस माइनर और केनिस मेजर के नाम से पहचाना जाता है। इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी आता है। वहाँ कहा है श्यामश्च त्वा न सबलश्च प्रेषितौ यमश्च यौ पथिरक्षु श्वान। अथर्ववेद 8/1/19 के इस मंत्र में इन्हीं दोनों सूर्यों की चर्चा की गई है। श्राद्ध में हम एक प्रकार से उसे ही हवि देते हैं कि पितरों को उनके विकिरणों से कष्ट न हो।

इस प्रकार से देखा जाए तो पितृपक्ष और श्राद्ध में हम न केवल अपने पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं, बल्कि पूरा खगोलशास्त्र भी समझ ले रहे हैं। श्रद्धा और विज्ञान का यह एक अद्भुत मेल है, जो हमारे ऋषियों द्वारा बनाया गया है। आज समाज के कई वर्ग श्राद्ध के इस वैज्ञानिक पक्ष को न जानने के कारण इसे ठीक से नहीं करते। कुछ लोग तीन दिन में और कुछ लोग चार दिन में ही सारी प्रक्रियाएं पूरी कर डालते हैं। यह न केवल अशास्त्रीय है, बल्कि हमारे पितरों के लिए अपमानजनक भी है। जिन पितरों के कारण हमारा अस्तित्व है, उनके निर्विघ्न परलोक यात्रा की हम व्यवस्था न करें, यह हमारी कृतघ्नता ही कहलाएगी।

पितर का अर्थ होता है पालन या रक्षण करने वाला। पितर शब्द पा रक्षणे धातु से बना है। इसका अर्थ होता है पालन और रक्षण करने वाला। एकवचन में इसका प्रयोग करने से इसका अर्थ जन्म देने वाला पिता होता है और बहुवचन में प्रयोग करने से पितर यानी सभी पूर्वज होता है। इसलिए पितर पक्ष का अर्थ यही है कि हम सभी सातों पितरों का स्मरण करें। इसलिए इसमें सात पिंडों की व्यवस्था की जाती है। इन पिंडों को बाद में मिला दिया जाता है। ये पिंड भी पितरों की वृद्धावस्था के अनुसार क्रमश: घटते आकार में बनाए जाते थे। लेकिन आज इस पर ध्यान नहीं दिया जाता।

Devbhoomi Samachar

देवभूमि समाचार में इंटरनेट के माध्यम से पत्रकार और लेखकों की लेखनी को समाचार के रूप में जनता के सामने प्रकाशित एवं प्रसारित किया जा रहा है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Verified by MonsterInsights