संपूर्ण ब्रह्मांड में प्रेम की सात्विकता
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
प्रेम सीधे अस्ति में उतरता है। झँझोड़ता है। अकेला छोड़ देता है। आदमी की जीवनयात्रा जन्म से लेकर मृत्यु तक, अनगिन पीड़ाओं से होकर चलती है, किन्तु प्रेम की पीड़ा में जो सहजता है, इस पीड़ा की जो प्रतीक्षा है, इसमें जो टूटन है, इसका जो वर्तमान है, वह संसार की समस्त पीड़ाओं से कहीं अधिक भगीरथ है। वस्तुतः यह पीड़ा ही एक ऐसी पीड़ा है, जिसमें व्यक्ति उतरना चाहता है। यह उसे सेंकती है। यह आंगिक नहीं होती। इसका कोई निश्चित स्थल नहीं। यह तो अन्तस्तल में उपजती है। इस पीड़ा को न बतलाया जा सकता है और न ही समझाया। यह अकारण आती है। तोड़ जाती है।
अनुत्तरित है यह। यह कुछ ऐसे होता है जैसे कोई अपने होने में ही स्वयं को याद करे। यह कभी अधूरी नहीं आती। यह कुछ अधूरा ले भी नहीं जाती। पूरा लेकर चली जाती है। आदमी अपने में अनावृत हो जाता है। ज्यों आकाश खुलकर भी बन्द हुआ सा लगता है। निस्सीम होकर भी ससीम लगता है। यह पीड़ा मुक्त करती है। आदमी अपने हिस्से में ही आप्तकाम हो जाता है। पा लेने की वांछा समाप्त हो जाती है। खो जाने का डर दूर हो जाता है। रह जाती है तो बस तपती रिक्तता। इस रिक्तता के साथ बह निकलती है शीतल निरन्तरता।
यह जगत किसी चुम्बक की भाँति है। इसका चुम्बकीय क्षेत्र सदैव अदृश्य होता है। इसमें आकर्षण भी है तो सहज रूप से प्रतिकर्षण भी। और प्रेम ही वह अदृश्यता है। सेतु है। एक अदृश्य सेतु। जो चुपचाप जोड़ देता है और वैसे ही तोड़ भी देता है। बस इस तोड़ में मिलन का दूसरा किनारा बाहें खोले खड़ा रहता है। प्रेम की अपनी कोई भागीदारी नहीं। यह तो समस्तता है। यह मन के पहचाने में नहीं आता। यह तो हृदय की अतिसृष्टि है। इसमें किसी की संलिप्तता नहीं। यह तो सदा से अध्यासित है। यह अनपग है किन्तु जीवन का सहचर है।
प्रेम में न सहमति है और न ही असहमति।
यह तो शरीर की सीमाओं और क्रियाविधियों का अतिक्रमण है। वह अवस्था जहाँ शरीर झाँकता भर है। यह तो भुलक्कड़ी है। अपने होने का ही अभान। यह परम साधुता है। यह किसी जोगी की उस झोपड़ी जैसा है जिसमें सम्राट नतशीश होते हैं। यह किसी की नहीं सुनता। यह निरहंकार है। प्रेम तो प्रतीक्षा के हिमालय पर उगा पहाड़ी फूल है। सृष्टि जिसकी लीला है, प्रेम उसी का उत्कर्ष। इस लीला में ही सब बढ़ता है। क्षय होता है। किन्तु प्रेम रह जाता है। धिका सा। ठहरा सा। पुनः उस लीला के सर्वोच्च शिखर छूने को। ऐसे ही अनगिन पीड़ाओं में झर जाने को। सिक्तता और शीतलता रचने को।
देखता हूँ कि सामने सरोवर में दो फूल खिले हैं। उजले फूल। झकझक सफेद। आधा भाग जल की एकाग्रता में मौन है। और ऊपर आकाश अवतर रहा। दोनो की अपनी विद्यमानता है। दोनों का अपना वैभव। दोनों में दोनों की पुकार व्याप्त है। दोनों एक दूसरे को जानते हैं। और दोनों बिल्कुल ही अनपहचाने। प्रेम ऐसा ही अनपहचाना है। वह प्रत्यक्ष नहीं आता। अप्रत्यक्ष टिकता नहीं। वह अनुभव की बाती है। प्रकाश उसके अन्तिम छोर पर बिखरता है। तल उसे सँवारता है। अन्धकार उसमें डूबता है। सूरज उसे भरने आता है। चाँदनी सहलाने। वह सदा जलता रहता है।
सामने के पेड़ पर कुछ अकुलाहट होती है। एक सेमली चिड़िया अपने डैने ताने उन फूलों में अपनी चोंच सटाती है। पल झपते ही उड़कर पुनः उसी पेड़ में खो जाती है। मैं आँख लगाकर ढूँढता हूँ। किन्तु वह नहीं दीखती। सम्भवतः पत्तियों ने उसे छुपा लिया है। पत्तियाँ भी नहीं चाहतीं कि कोई उस प्राप्ति को देखे जो उस चिड़िया के सङ्ग उन फूलों से होकर लौटी है। प्रेम ऐसा ही है। उसकी प्राप्ति को देखने का कोई उपाय नहीं। वह तो ऐसे ही किसी फूल से झरता है और चिड़िया में घुलता है। ऐसे ही नानाविध आवरण उसे ढकते हैं। हृदय में वो खुलता है। निःस्वास में घुलता है। क्षण में मिलता है। युगों में चलता है। कहानियों में पढ़ा जाता है। किन्तु तब भी वह सदा अव्यक्त और समूचा रह जाता है। हम सभी प्रेम की सत्यता में उतर जाँय, इसी शुभेच्छा के साथ…