कविता : देव बनकर पुजवाना क्या पत्थर के हाथ में है

वीरेंद्र बहादुर सिंह

देव बन कर पुजवाना क्या पत्थर के हाथ में है?
बोझ लेकर डूबना क्या पत्थर के हाथ में है?
भाव भक्ति की डोर तुम बांध लेना,
तारना या डुबाना तो ईश्वर के हाथ में है।

सचमुच बाहर ढूंढते हैं कभी मिलती नहीं,
शांति तो हमारी अंतरात्मा के हाथ में है।
जब चाहे तब नहीं गूंज उठते शहनाई के सुर,
यह हमारा आनंद अवसर के हाथ में है।

लाख सूरज उगे और डूबे सदा धरती पर,
मोती की चमक तो समंदर के हाथ में है।

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वीरेंद्र बहादुर सिंह

लेखक एवं कवि

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देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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