कविता : हारा-थका किसान
कविता : हारा-थका किसान… बदल गया मौसम अहो, हारा-थका किसान। सूखे-सूखे खेत हैं, सूने बिन खलिहान॥ चूल्हा कैसे यूं जले, रही न कौड़ी पास। रोते बच्चे देखकर, होता ख़ूब उदास॥ ख़्वाबों में खिलते रहे, पीले सरसों खेत। धरती बंजर हो गई, दिखे रेत ही रेत॥ #डॉo सत्यवान सौरभ, भिवानी, हरियाणा
बजते घुँघरू बैल के, मानो गाये गीत।
चप्पा-चप्पा खिल उठे, पा हलधर की प्रीत॥
देता पानी खेत को, जागे सारी रात।
चुनकर कांटे बांटता, फूलों की सौगात॥
आंधी खेल बिगाड़ती, मौसम दे अभिशाप।
मेहनत से न भागता, सर्दी हो या ताप॥
बदल गया मौसम अहो, हारा-थका किसान।
सूखे-सूखे खेत हैं, सूने बिन खलिहान॥
चूल्हा कैसे यूं जले, रही न कौड़ी पास।
रोते बच्चे देखकर, होता ख़ूब उदास॥
ख़्वाबों में खिलते रहे, पीले सरसों खेत।
धरती बंजर हो गई, दिखे रेत ही रेत॥
दीपों की रंगीनियाँ, होली का अनुराग।
रोई आँखें देखकर, नहीं हमारे भाग॥
दुःख-दर्दों से है भरा, हलधर का संसार।
सच्चे दिल से पर करे, ये माटी से प्यार॥