कविता : खुलकर बोलूंगा

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सिद्धार्थ गोरखपुरी

जेहन का हर बोझ त्यागकर
मन का हर इक संकोच त्यागकर
भेद मैं मन के खोलूंगा
आज मैं खुलकर बोलूंगा

खुद के सम्मुख खुद को करके
निज हाथ आशीष माथ पर धरके
गिरह वचन के खोलूंगा
आज मैं खुलकर बोलूंगा

उम्मीदों ने तन्हा कर डाला
पूछो न के क्या – क्या कर डाला
मैं भी उम्मीदों को अपने,
वैसे ही तन्हा छोडूंगा
आज मैं खुलकर बोलूंगा

मौन अधर था, सब वक्ता थे
अपनी बातों के अधिवक्ता थे
सभी मौन हो जाएंगे!
आज मौन को तोडूंगा
आज मैं खुलकर बोलूंगा

गई भाड़ में दुनियादारी
मैं भी कर ली है तैयारी
एक – एक करके सबको
उनके ही माफिक छोडूंगा
आज मैं खुलकर बोलूंगा

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