कविता : आँखें भी बोलती हैं

सिद्धार्थ गोरखपुरी

न जीभ है न कंठ है
कहने का न कोई अंत है
दिखने में महज ये बात है
पर मामला थोड़ा ज्वलंत है
आँखें भावनाओं के इर्द -गिर्द
जब भी अक्सर डोलतीं हैं
ये आँखें भी बोलती हैं

दुःख हो या संताप हो
अकेलेपन का विलाप हो
भावनाओं से होकर ओतप्रोत
रूँधे गले से अलाप हो
आदमी के हर जज़्बात को
फिर धीरे -धीरे खंगालतीं हैं
ये आँखें भी बोलती हैं

ख़ुशी के आंसू एक जैसे
दुःख के आंसू एक जैसे
भाव को समझ पाया है
कमतर
आदमी बस जैसे तैसे
शायद अगले आदमी के
भाव को टटोलतीं हैं
ये आँखें भी बोलती हैं

मन में अगर लगाव हो
थोड़ा अधिक तनाव हो
मां का गले से लग जाना
ममतामयी कोई भाव हो
मन के कुंठित हर गिरह को
आहिस्ते से खोलतीं हैं
ये आँखें भी बोलती हैं

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