कविता : सागरतट

राजीव कुमार झा
सबके घर को
चांद ने खुशियों से
भर दिया
अंधेरे आकाश में
जब चांद खिल गया
नदी मुस्कुरा उठी
उसका बहता हुआ जल
घाट पर आकर ठहरता
अरी सुंदरी !
झील के उस पार
जंगल में
गीत गाकर चांद
चुप है
यहां कालिमा में
कितना सघनवन
दूर तक फैला हुआ
उजाले में
अपने घर के पास
गलियों से गुजरती
मौन होकर रात
अब अंतिम पहर में
जग गयी है
कार्तिक की अंधेरी
रात में
यह मन का दीया
जो जल रहा है
सुबह का सूरज
बहुत दूर से
उसे देखता
खेतों के पास आकर
उगा है
यह महकती हवा
जलाशयों में
सिमटे हुए जल को
स्निग्ध उष्मा से
आलोड़ित करती
नदी के पास
पेड़ की डालियों पर
अब धूप छाई है
हाट बाजार में
उल्लास का स्वर
गूंजता है
बगीचे के पास से
गुजरता हुआ राही
ठहरकर
यहां सबसे पूछता है
आज क्या घटा
इस नगर में कोई
भटकता
कितने पहर के बाद
आया है
आनंद मोद मंगल
जीवन में समाया
घर के दरवाजे पर
शाम में सब लोग
रोज अब दीपक
जलाते
दूर शहर से लोग
गांवों में कभी
जब लौट आते
मन के मेले में
तब रौनक बसी होती
अरी सुंदरी
तुम उपवन में आकर
सुबह तब चुनती
सागर के तल से
सुनहरे मोती
रंगबिरंगे फूलों की
महक से
आकाश सुरभित है
नया सूरज
रोज दस्तक दे रहा
घर आंगन का
यह उजियारा
शाम में उगता
जो सबसे पहला तारा
उसको तुमने
सबसे पहले
नीलगगन में देखा
जाड़े की
उसी सुबह में
धूप की रिमझिम
बारिश होती
नदी हमारे मन को
धोती
बहती जाती
सागर का यह
शांत किनारा
तुमने किसको
कब यहां पुकारा
¤ प्रकाशन परिचय ¤
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From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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