साहित्य लहर

कविता : एक बाप खुल कर रो भी नहीं सकता

कविता : एक बाप खुल कर रो भी नहीं सकता, अरे माँ तो रो कर दिल हल्की कर भी लेती है, पर एक पिता अन्दर ही अन्दर, पूरी तरह टूट कर रह जाता है… एक माँ-बाप की किस्मत तो देखो, इन्ही के द्वारा इन्ही के एक फूल सी बच्ची को, बलिया से मनीष कुमार की कलम से…

हमसे कोई पेन मांग ले
तो हम संकोच करते है
और एक पिता अपनी बेटी देकर भी
आह तक नही भरता…

माँ तो खुलेआम आँगन मे रो भी लेती है
पर एक पिता आह तक नही भर पाता
भगवान् की इस रीत को तो देखो
एक पिता अन्दर ही अन्दर टूट जाता है
फिर भी अपनी जिगर के टुकड़े को दान करता है…

एक माँ तो बेटी को
गले लगा कर रो भी लेती है
पर एक पिता अन्दर ही अन्दर घुट कर
रह जाता है…
कोई एक दिन की कमाई नही देता
पर माँ-बाप अपनी
जिगर का टुकड़ा निकाला कर दे देते है…

अरे माँ तो रो कर दिल हल्की कर भी लेती है
पर एक पिता अन्दर ही अन्दर
पूरी तरह टूट कर रह जाता है…
एक माँ-बाप की किस्मत तो देखो
इन्ही के द्वारा इन्ही के एक फूल सी बच्ची को
दुसरो के हाँथो दान कर दिया जाता है…

एक माँ तो रो भी लेती है
पर एक पिता अन्दर ही घुट कर
रह जाता है……।
अन्दर ही घुट कर रह जाता है……।

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कविता : एक बाप खुल कर रो भी नहीं सकता, अरे माँ तो रो कर दिल हल्की कर भी लेती है, पर एक पिता अन्दर ही अन्दर, पूरी तरह टूट कर रह जाता है... एक माँ-बाप की किस्मत तो देखो, इन्ही के द्वारा इन्ही के एक फूल सी बच्ची को, बलिया से मनीष कुमार की कलम से...

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