ठगी का नया धंधा
मो. मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
देखो!
बेचने वाले बेच रहे हैं
चांद की भी जमीन
बिना सोचे समझे कर रहे हैं
हम भी यकीन
लिखा रहे हैं एक एकड़ दो एकड़
संचित निधि गंवा रहे हैं
टीवी पर दिखा फूले नहीं समा रहे हैं
अजी!
धंधेबाजों का धंधा-
हम क्यों नहीं समझ पा रहे हैं
नोट लेकर वो कागज थमा रहे हैं
मेहनत की सारी कमाई-
किस पर लुटा रहे हैं?
स्वप्निल झुनझुने के लिए कर रहे सब खर्च
पाई पाई उसका हो रहा है व्यर्थ
फिर भी
पछता भी नहीं रहे हैं
ठोक ताल खरीदगी का उल्लास मना रहे हैं
एक दूजे को ऐसे दे रहे हैं गिफ्ट
मानो अगले दिन ही वहां हो रहे हैं शिफ्ट!
अजीब फलसफा है
जो पास है फ़िक्र उसकी नहीं
सुदूर अंतरिक्ष में-
ढ़ूंढ़ता मानव खुशियां नई नई
जमीं हो रही है बंजर,
कहीं जल की है कमी
उर्वरता मिट्टी की हो रही कमतर
हैं खाद्यान्न का संकट
फिर भी
वनों की कटाई जारी निरंतर
कैसे हुई हमारी सोच में अंतर?
प्रेम नहीं ज़रा भी धरा की-
अपने दिल के अंदर!
क्यों हो रहे हैं हम विषयांतर?
क्यूं चाहिए चांद पर जमीं?
क्या धरती में है कुछ कमी?
सदियों से रहते आए हैं हम-सब यहीं!
पहले जमीं की सोचें
फिर चांद पर खुशियां ढ़ूंढ़े!
ठगों को चाहिए सिर्फ मौके!!
ठगी का धंधा है यह आप समझें।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »मो.मंजूर आलम ‘नवाब मंजूरलेखक एवं कविAddress »सलेमपुर, छपरा (बिहार)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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